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जैसा करोगे वैसा भरोगे

रश्मि प्रकाश

अपने पैंसठवे जन्मदिन पर सुभद्रा जी उस शहर के एक वृद्धाश्रम में जाकर कुछ कपड़े और मिठाई बाँटना चाहती थी। उन्होंने जब अपने बेटे से कहा तो वो बोला, “माँ नई जगह पर आप ये सब करने को कह रही हो मैं तो खुद यहाँ दो महीने पहले आया हूँ पता कर बताता हूँ फिर आप चली जाइएगा।”
दूसरे दिन सुभद्रा जी को लेकर बेटा एक वृद्धाश्रम पहुँचा। वहाँ पर सबके हाथों मे सामान देकर अच्छे से बात करते हुए अचानक वो एक महिला को देख कर रूक गई। बिखरे बाल, कपड़ों का भी कोई होश नहीं, जाने किन ख़्यालों में वो गुम थी। उसकी सूरत थोड़ी जानी पहचानी लगी तो वो वहाँ के एक स्टाफ़ से उस महिला के बारे में पूछने लगी। “अरे वो गायत्री आंटी बड़े रईस ख़ानदान की है। पर बेटा बहू कोई इन्हें ना पूछता, यहाँ छोड़ गए हैं कभी देखने तक ना आते। बस चुपचाप रहती है, कुछ बात करो तो एक ही बात बोलती जैसा करोगे वैसा भरोगे।” नाम सुनते सुभद्रा जी भाग कर उसके गले लगते बोली, “सखी तू यहाँ कैसे, तेरा बड़ा बंगला, रुआब सब किधर गया।”
ये आवाज़ गायत्री जी कभी भूल ही नहीं सकती थी। उनके बचपन की सखी की जो थी। गले लग रोते हुए बोली, “जैसा करोगे वैसाभरोगे…. सच है मैं अपनी अमीरी में बड़े लोगों पर ज़ुल्म ढाएँ, किसी को ना समझी, जो मन में आता खरी खोटी सुना दिया करती। नौकरचाकर चुपचाप सुनते, बच्चे भी सुन कर सहमें रहते, पति कहते ये आदत अच्छी नहीं पर मैं कब किसी की सुनी थी। अपने बच्चों को ना संस्कार दे पाई ना समय। हमेशा बात बात पर खरी खोटी सुनाती रही। बहू आई तो उसे नीचा दिखाने में लगी रही और पति के देहांत के बाद जब मैं बीमार लाचार हो गई। बेटे बहू ने मुझे खरी खोटी सुनाना शुरू कर दिया। जिन्हें मैंने कभी समय नहीं दिया वो मुझे कहाँ समय देते। सेवा तो दूर की बात थी। मुझे यहाँ ला छोड़ा। अब पैसे का घमंड वो करते हैं, मैं यहाँ बैठ कर उपर जाने के दिन काट रही हूँ।” लाचार सी गायत्री जी ने कहा।
सुभद्रा जी कुछ कह नहीं पाई सही ही तो कह रही थी, जैसा करोगे वैसा भरोगे।

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