लक्ष्मी कांत
बीते चार दिनों से दोनों में बोलचाल बंद थी। अभी सालभर भी पूरा नहीं हुआ था मोहन और सुधा की शादी को। यूं तो छोटी-छोटी नौकझोंक दोनों में कई बार हुई थी, मगर उस दिन कम्पनी से लौटे मोहन को पानी देते हुए सुधा अपनी पड़ोसन की लाई कीमती साड़ी के गुणगान करते हुए अकस्मात ही मोहन को कह बैठी। हमारी शादी को सालभर हो गया है और आपने एक अच्छी साड़ी भी लाकर दी है? हमारी पड़ोसन के मर्द उसे आए दिन साड़ियां दिलवाते रहते हैं और वो भी एक से एक मंहगी।
मोहन को ये ताना तीर की गहराई से भी अधिक तेजी से चुभा। सुधा भलीभांति जानते समझते हुए भी कि उसके पीछे पूरे परिवार की जिम्मेदारी है। इकलौती कमाई आती है उसकी जिसमें उसे मां बाबूजी की दवाओं सहित छोटी बहन की पढ़ाई के साथ-साथ घर के खानेपीने हरेक चीज की खरीदारी सोच समझकर करनी पड़ती है। फिर भी ये सब, सुधा द्वारा कहे शब्दों की आंच में सारा खून छीज गया था। अपमान का पारा सिर चढ़कर तपते हुए तवे सा हो उठा था और वह कड़वे नीम सा कड़वे शब्द बोल गया था कि इतना ही नई साड़ियां पहनने का शौक था तो अपने पिता से कह दिया होता.... किसी साड़ियों की दुकान वाले से ब्याह कर देते। किसी छोटी मोटी तनख्वाह पर काम करने वाले गरीब से नहीं।
लगभग तब से ही दोनों के बीच बातचीत बंद थी। तनातनी इतनी थी कि पहले वो बातचीत करें मैं क्यों करुं। वैसे दोनों एक दूसरे के काम तो भलीभांति कर रहे थे, मगर बिना कुछ कहे बोले। फिर बात चाहे शेव की कटोरी से लेकर भोजन की थाली तक क्यों ना हो... बस..... सिर्फ प्रेम और मनुहार की वे समस्त बातें अनुपस्थित थीं। जिनके बिना वे दोनों एक पल भी नहीं रह पाते थे। लेकिन आज... आज जब कम्पनी से मोहन को आदेश मिला कि उसे पन्द्रह दिनों के डेपूटेशन पर मुम्बई ऑॅफिस जाना है, तो घर आकर स्वयं को नहीं रोक पाया। रुँधे गले से भीगे शब्द निकल पड़े ... सुधा ...वो....
वो मेरा सूटकेस सहेज देना....पन्द्रह दिन के लिए मुम्बई जाना है मुझे।
क्या.... मुम्बई...वो भी पन्द्रह दिनों के लिए....
और इतना बोलकर सुधा के शेष बचे शब्द आँसुओं में बह निकले। दोनों के बीच तनातनी का अहम टूट गया। दोनों ने एक–दूसरे को उन्होंने बाँहों में जकड़ लिया।
उनकी आँखों से बहते गर्म आंसु आपस में ढेर सारी बातें करने लगे......
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