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तीर्थ

अनजान

'गाड़ी रोको बेटा।' कार की खिड़की से बाहर झाँक रहे रत्नेश बाबू ने सामने नजर आ रही बिल्डिंग पर आँखें गढ़ाए अपने बेटे आयुष से कहा।
आयुष ने कार रोक कर साइड में खड़ी कर दी। रत्नेश बाबू दरवाजा खोल कर नीचे उतरे और पैदल चलते हुए बिल्डिंग के बाहर लगे लोहे के विशाल गेट से अंदर झाँकने लगे। उनकी आँखों में गर्व की चमक उभर आयी। आयुष ने यहीं से पढ़ाई की शुरुआत की थी। तब यहाँ की फीस भरना उनके सामर्थ्य के बाहर था पर बेटे के बेहत्तर भविष्य के लिए उन्होंने जैसे-तैसे सब सहन किया। उस समय का छोटा सा स्कूल आज शहर का सबसे प्रतिष्ठित कॉलेज था और आयुष एक बड़ा अधिकारी। उनके ओठों पर खिली गर्वीली मुस्कान और गाढ़ी हो गई थी।
धीरे-धीरे चलते हुए वह स्कूल के बगल में बने पार्क तक पहुँच गए। वहाँ लगे झूलों को देख कर उन्हें वर्षों पुरानी एक घटना याद आ गयी। आयुष बचपन में उस बीच वाले झूले से अचानक फिसल गया था। उन्होंने छलांग लगा कर बेटे को सुरक्षित बचा लिया था। इस प्रयास में उनके दाएं हाथ में गहरी चोट आ गई थी। बाएं हाथ की उंगलियों से चोट के निशान को सहलाते हुए रत्नेश बाबू की आँखों में आयुष के लिए ढेर सारा स्नेह उमड़ आया। पार्क के बाहरी कोने में एक बड़ा सा मन्दिर बना था। वह जूते उतार कर मंदिर के भीतर गए और वहाँ स्थापित काली माता की मूर्ति के चरणों में सिर रख दिया। शादी के कई सालों बाद तक यशोधरा की गोद सूनी थी। उन्होंने और यशोधरा ने महीनों बिना नागा यहाँ माथा टेका तब आयुष का जन्म हुआ था।
यशोधरा कहती थी कि उसका बेटा बड़ा हो कर उसे तीर्थ कराने ले जायेगा, लेकिन वक्त की हवा उसे उसकी अधूरी इच्छा के साथ उड़ा कर दूर गगन में ले गयी थी। उनकी आँखों की कोरें गीली हो गयी थीं।
आयुष पिछले कई दिनों से उन्हें तीर्थ पर ले जाने की कह कर रहा था। उन्हें लगता था कि उम्र के अंतिम सोपान में पाँच वर्षीय पोते की तोतली बातों में जो सुख है वह किसी तीर्थ में कहाँ, इसलिए टाल रहे थे। अब बहू भी जिद करने लगी थी तो तैयार होना पड़ा। पोते को सोता छोड़ कर आये थे, वरना वह कभी नहीं आने देता। वह तीर्थ पर जाते समय इन स्मृतियों से साक्षात्कार कर जैसे यशोधरा से कह रहे थे कि तुम्हारा देखा सपना आज पूरा हो रहा है।
वह वापिस आ कर कार में बैठ गए, पर मन अभी भी अतीत की सुगंधित गलियों से नाता जोड़े था। शहर निकलने के बाद आयुष एक पुरानी इमारत के बाहर कार रोक कर नीचे उतरा, तब उनकी तन्द्रा भंग हुयी।
'ये क्या है?' उन्होंने बाहर निकल कर असमंजस से पूछा।
'तीर्थ...।' उनकी ओर देखे बिना आयुष ने कहा और उन्हें लेकर भीतर गया।
'कहाँ ले आये बेटा।' वहाँ का नजारा देख कर रत्नेश बाबू का चेहरा सफेद पड़ गया, 'ये तो ओल्ड एज...।' वह आगे नहीं बोल पाये। आँसुओं के तीव्र सैलाब के साथ उनका कंठ अवरुद्ध हो गया था।

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