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तुम हो किंचित निकट यहीं

तुम हो किंचित निकट यहीं

महेन्द्र मुकुंन्द


पिय! तुम हो किंचित निकट यहीं..........
ऐसा होता आभास मुझे।
मृदु-गंध-पवन तन छू मेरा,
देकर जाती विश्वास मुझे।
तजि लोक-लाज, सब को विसारि,
तेरी छवि में सब को भूली।
सावन की शीत-समीर बही ,
मैं स्मृति के झूला झूली।
घनघोर घटाओं का गर्जन,
दामिनि दमके हिय कम्प करे,
यह दिवस लगे वैरी मुझको,
अब भाता नहीं उजास मुझे।
पिय! तुम हो किंचित निकट यहीं.........
अनुप्राणित प्राण किए तुमको,
जग-बंधन तोड़ दिए मैंने।
होतव्य! सुकृत-कृत-अकृत सब,
हवि आहुति छोड़ दिए मैंने।
छवि दरश परे यह परम-लालसा,
पीर घनी देती मुझको,
हृग पथराये हैं पथ देखत,
छोड़े जाती हैं साँस मुझे।
पिय! तुम हो किंचित निकट यहीं ...........

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