त्रिलोचन कौर
बहुत बड़े घर की खिड़की के अन्दर से माथुर दम्पति की झाँकती दो जोड़ी उदास बूढ़ी आँखे, फोन पर आँखे टिकाये, बेटे विराज के सपरिवार कुशल-मंगल लंदन पहुँचने का समाचार सुनने के लिए बेताब हो रही थी।
दोनों पति-पत्नि सफर के समय का पूरा हिसाब किताब लगा चुके थे कि विराज दो घंटे पहले ही घर पहुँच चुका होगा लेकिन अभी तक फोन क्यों नही आया। अनहोनी शंकाओ के विचार उन दोंनो के चेहरे पर स्पष्ट नजर आ रहे थे।
"मैं फोन करता हूँ।" माथुर साहब ने अपनी पत्नि से कहा।
"नही-नही, अभी थोड़ा इन्तज़ार और करते है..विराज ने कहा था आप फोन नही करना मैं वहाँ पहुँच कर फोन करुँगा।" विराज की माँ ने चेहरे पर छाई चिन्ता की लकीरों को हटाकर हल्की मुस्कराहट से कहा।
अचानक फोन बजने से दोंनो के चेहरे चमक उठे विराज का फोन था।" माँ हम लोग ठीक-ठाक घर पहुँच गए है, माँ अपना और पापा का ख्याल रखना, टेककेयर ..ओके..बॉय .. बॉय।"
"जाओ, अब चाय बना लाओ" राहत की साँस लेकर माथुर साहब ने कहा। अचानक बन्द दरवाजे पर किसी ने जोर से दस्तक दी। किसी आगन्तुक के आने के विचार से माथुर साहब का चेहरा खिल उठा दरवाजा खोलकर देखा कोई नही था तेज हवा चल रही थी उससे दरवाजा खड़-खड़ हो रहा था।
रसोई अन्दर से पत्नी की आवाज आई "कौन है?"
"कोई नही, हवा थी।" माथुर साहब मायूसी से बोले
पत्नी ने चाय की प्याली हाथ में पकड़ाकर बोझिल माहौल को हल्का बनाने के लिए हँसकर कहा "अरे कोई तो है न...चाहे हवा.. तुम हो.. मै हूँ.. हमारे संग ये हवा है..और जीने के लिए क्या चाहिए?" कहते-कहते खिलखिला उठी विराज की माँ"
माथुर साहब चाय का घूँट भरकर एकटक पत्नी के चेहरे की ओर देखते रहे जैसे ही आँखे चार हुई, दोंनो एक दूसरे को देख आत्मिय भाव से मुस्काने लगे ।
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