ऋतु अग्रवाल
"मैं नहीं जाऊंगी"
"एक बार कह दिया तो कह दिया, मैं नहीं जाऊंगी।" मानसी चिल्ला पड़ी।
"क्यों नहीं जाएगी? आखिर ऐसी क्या बात है कि तू इतनी जिद कर रही है?" नूतन ने मानसी को झिंझोड़ दिया।
"कुछ नहीं पर मैं नहीं जाऊंगी।" मानसी अपनी बात पर अटल थी।
"तो फिर घर का सामान कौन लाएगा।" दीपांशु तो दोपहर का गया रात को ही लौटता है कोचिंग से। थका-हारा आता है वह। कितनी मेहनत कर रहा है ताकि अच्छे कॉलेज में उसका दाखिला हो सके। तेरे पापा बीती रात घर लौटते हैं तो क्या तेरा फ़र्ज़ नहीं कि तू घर के काम में हाथ बँटा दे। बस उस मोड को पार करके बनिये की दुकान से राशन ही तो लाना है और वह भी स्कूटी से। इतना सा काम करने में भी ज़ोर आ रहा है तुझे। खड़ी हो और फटाफट से सामान लेकर आ।" नूतन ने मानसी का हाथ खींचा ।
"उस मोड़ पर ही तो तुम्हारा लाडला अपने निकम्मे दोस्तों के साथ खड़ा आती-जाती हर लड़की पर छींटाकशी करता है, अश्लील हरकतें करता है। सिर झुक जाता है मेरा जब मेरे स्कूल की छात्राएँ जाकर रहती हैं कि मैडम! आपका भाई बहुत बदतमीज़ है पर तुम्हें तो अपने राजदुलारे पर बड़ा गर्व है, तभी तो उसकी कही सभी बातों पर आँख मूँदकर विश्वास कर लेती हो। पर मुझसे उस मोड़ पर उसका वह वीभत्स रूप नहीं देखा जाएगा इसलिए मैं वहाँ कभी नहीं जाऊंगी।" मानसी रो पड़ी।
कमरे में सन्नाटा छा गया और पंखे की भायं-भायं नूतन का मस्तिष्क सुन्न कर गई।
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