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दायित्व बोध

चंद्रकांत

आप गाड़ी लेकर निकलिए किसी भी त्यौहार पर, तो कुछ दृश्य आपको बहुतायत में मिल जायेंगे खासकर भाई-बहन वाले त्यौहारों पर, फिर चाहे वो भैया-दूज हो या रक्षाबन्धन।
पश्चिमी उत्तरप्रदेश की सड़कों पर तो ऐसे त्योहारों पर जैसे मोटरसाइकिलों की बाढ़ सी आ जाती है। कोई बहन पति के पीछे बैठकर भाई के घर जा रही है, तो कोई भाई अपने परिवार के साथ बहन के घर जा रहा है।
चूँकि इन त्यौहारों में भेंटों का आदान प्रदान बहुत ज्यादा होता है, तो पूरी बाइक सामान से भरी होती है। कभी स्त्री थैले पकड़कर बैठती है, तो कभी सारा सामान बाइक पर बांध लिया जाता है। जहाँ बच्चे भी चलने की जिद पकड़ ले तो स्त्री की जिम्मेदारी बच्चे के लिए हो जाती है और पुरुष थैले को पेट से बांध लेता है और पूरे रास्ते कमर सीधे किये हुए सधकर बाइक चलाता है।
कार में बैठे हुए व्यक्ति को 100-120 की गति में ये सब लोग बहुत ही खतरनाक लगते हैं क्योकि ये उसकी गति के सामने बार-बार आते हैं। अक्सर वो इनके उत्साह को देखकर चिढ़ता हुआ भी निकलता है। कुछ कार वालों के मन में चिंता का भाव भी होता है और वो ये सोचता है कि ये लोग कैसे सुरक्षा को दाँव पर लगाकर इतना लोड होकर निकल रहे हैं। इस मिश्रित से भावों में अक्सर वो इन्हें लापरवाह भी समझ लेता है और अगर वो कोई लन्दन या अमेरिकी रिटर्न्स या जातिविज्ञानी गिरोह से हो तो इन सबके साथ-साथ भारत के त्यौहारो की निंदा करते हुए लंबी सी पोस्ट भी लिख सकता है और उन्हें इस सब में यूरोप की तारीफ करने का मौका भी मिल जाता है।
पर सड़कों पर उमड़ा ये बाइकर्स का जनसैलाब इन सबसे इतर है। जिसमें न कोई सुरक्षा के बारे में सोचता, न ही कोई धूल मिट्टी की चिंता करता और न ही कोई 2-3 घण्टे अकड़कर बैठने की। सबको बस अपने भाई-बहन के पास पहुँचने की ललक होती है। सबको मोह है अपने सहोदर के परिवार के पास जाने का। वहाँ जायेंगे तो बहन-भाई मिलेंगे, सुख-दुःख बांटेंगे और जीजा-साले बैठकर गप्पे मारेंगे तो ये सब थकान उतर जायेगी।
इस सब आपाधापी में सिर्फ भाव ही बड़ा है, जिसके सामने सब गौण दिखता है। इन दोनों त्यौहारों में न कोई दीवाली जैसी अतिरिक्त चमक और न ही कोई होली जैसी मस्ती। पर दो परिवारों के मध्य दायित्व बोध का भाव इन त्यौहारो में सबसे ऊपर रखता है।

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