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दुख की सरिता गहरी

महेन्द्र मुकुंन्द


दुख की सरिता गहरी, अँखियाँ,
जल बरसाना धीरे-धीरे,
मेरा प्रण प्रियतम-सागर में,
जा मिल जाना धीरे-धीरे।

बागों में कलिकाओं पर,
मंडराता था जो यौवन-मद में,
अलि नहिं देखा पीछे फिर,
उनका मुरझाना धीरे-धीरे।

अभिलाषा-गोपन हिय की,
अधरों तक पहुंची तो यह देखा,
पत्थर से टकरा सब टूटा,
ताना-बाना धीरे-धीरे।

बंधन में क्यों बाँधा ऐसा,
पर-प्रेमालय बंदी करके,
इस घर में ही जीवन जीना,
या मर जाना धीरे-धीरे।

कानों में जब पिय-पग की,
आहट आये तो धीरज रखना,
भीगी-भीगी पलकों पर तुम,
स्मित लाना धीरे-धीरे।

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