कस्बे के किनारे तंग गलियों की एक बस्ती। छोटे-छोटे कमरे के मकान, कोठरी, नंगी ईटों पर डगमगाती टीन की चादरें, कच्ची मिट्टी की दीवारें, फूंस के छप्पर का घूंघट ओढ़े आंधी तूफान, बरसात, धूप, लालची नजरों से अपने अस्तित्व को बचाने की कोशिश में बहुत थकी सी पर खड़ी है। सूर्यास्त के बाद अंधेरे में डूब जाती यह बस्ती। बस मिट्टी के तेल की ठिवरी, लालटेन, बरसात में कड़कती बिजली से ही दिखाई देती है। कई पीढ़ी की यही जीवन शैली। कोठरी के दरवाजे पर एक फटा मैला पर्दा, बैठने उठने को एक चरमराई चारपाई, पानी का घड़ा उस पर एक गिलास। गृहस्ती के नाम पर एक लोहे का संदूक, पीछे खुली जगह में मिट्टी का चूल्हा, पिचके काले पड़ चुके अल्मुनियम के चंद बर्तन। ईटों पर सजी घर की परचून, दाल, चावल, आटा, मसाले के टेढ़े मेढ़े डिब्बे। एक दो जोड़ी खूंटी पर टंगी धोती, ब्लाउज, पेटीकोट, अंगोछा। सजने सवरने के लिए आले में रखी लालता, सुरमेदानी, बिंदी, नाखूनी, दांत की मिस्सी, गुलाबी रंग, कुछ नकली गहने बुंदे, झुमकी, चेन, कमरबंद, पायल। एक और चीज जो जरूरी वह आइना हर घर में होता है।
बस्ती में एक कुआं जो उन सब का एक क्लब है। हर सुबह, शाम, दोपहर मिलजुल कर सुख-दुख, हंसी मजाक की साझेदारी, आपस में गम हल्का करने का एक ही स्थान। रात के अंधेरे में एक ही आवाज तैरती और गूंजती है। मसलती कलियों का क्रंदन, युवती की सिसकियां प्रोडा की फुसफुसाहट, गाली गलौज, दूध पीते बच्चों का रोना और मर्द की बेशर्म, बहसी क्रूरतम हंसी के ठहाके, चौखट पर वृद्धा की खांसी की ठन ठन।
दिन की उदासी शाम होते ही चहल-पहल में बदल जाती है। लाला गिरधारी लाल दुकान बंद कर नए कुर्ता धोती में इत्र की फुलौरी लगाए पान चबाते गली में घुसते हैं। लाइन से कमरों के दरवाजों का पर्दा हटता है और एक मंडी सज जाती है। लालाजी पूरी गली पर एक नजर डालते हैं और फिर एक दरवाजे पर ठहर जाते हैं। पूछते हैं क्या भाव है? पेट की आग होठों पर एक नकली हंसी में बदल जाती है और शर्माती हुई एक आवाज बोली बस दो रुपए। लालाजी बोले मेरे दादाजी तो अठन्नी दे देते थे। साहब महंगाई कितनी बढ़ गई है। और वह हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींच लेती है। टूटे दरवाजे की सांकल बंद हो जाती है। चौखट पर बैठी बूढ़ी काकी की खांसी और तेज हो जाती है। मनुष्य की सभ्यता का सबसे पुराना व्यापार। देह मंडी। एक अंधेरा संसार खरीद-फरोख्त बस दो रुपए।
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