डॉ. प्रदीप उपाध्याय
आज फिर वे अलसुबह कॉलोनी के पार्क में आकर बैठ गए थे, रोजाना की ही तरह। उन्हें घुमने की कोई जल्दी भी तो नहीं थी। वैसे भी पार्क में कोई बहुत ज्यादा भीड़ नहीं थी क्योंकि सुबह जल्दी कौन उठता है! 'अलसाये से लोग हैं, नई पीढ़ी कहाँ हेल्थकांशस है।' सूना पार्क देखकर जैसे उन्होंने अपने आप से कहा। लेकिन तत्क्षण ही मन ही मन फिर बुदबुदाए-'पुरानी पीढ़ी के भी तो यही हाल हैं। या तो दिनभर गपशप मारने में लगी रहेगी, इधर-उधर की बुराई-भलाई करने या फिर घर के कामों में खोट निकालने में, बेटे-बहू की बुराई करने में या फिर टीवी से चिपकी रहेगी...बिल्कुल निठल्लों की तरह!'
फिर उनके मन के किसी कोने से आवाज आई - 'अरे, बेचारी पुरानी पीढ़ी के लोग करें भी तो क्या करें! घर में किसी के पास उनसे बातचीत करने के लिए समय भी तो नहीं रहता...जिस तरह घर का कबाड़ घर में इधर-उधर पड़ा रहता है, ठीक उसी तरह बुजुर्गों की स्थिति हो गई है, उन पर कहाँ किसी का ध्यान रहता है।'
'लेकिन हमें भी तो सोचना चाहिए कि बच्चे स्वयं इतने व्यस्त रहते हैं कि उनके पास समय कहाँ से होगा! अब मेरे स्वयं के बेटा-बहू अपने काम-धंधे, नौकरी-चाकरी में लगे रहते हैं। जब इनसे फुर्सत पाएं तब तो वे माँ-बाप के पास बात करने बैठ पाएं और फिर जब काम से लौटते हैं तब तक तो उनका तेल निकल चुका होता है। इतने निढाल हो जाते हैं कि बस...जैसे तैसे नौकर-नौकरानियों के हाथों का खाना निगल लें और जाकर बिस्तर पर पड़ जाएं...और वहीं मोबाइल पर ऊंगलियाँ घुमाते-घुमाते नींद के आगोश में समा जाएं।'
सामने मैदान में तीन-चार लोग अब घुमने के बाद योगासन और प्राणायाम कर रहे थे, उन पर दृष्टि रखते हुए उन्होंने फिर अपने से ही प्रतिवाद भी किया- 'अरे तो नौकरी या फिर काम-धंधा ये ही लोग कर रहे हैं! हमने तो जैसे नौकरी की ही नहीं झख ही मारी है! क्या हम काम नहीं करते थे? बड़े ही जिम्मेदार ओहदों पर रहे...सरकारी नौकरी करना क्या आसान काम था...वह भी अफसरी! कितना जवाबदारी का काम रहता था लेकिन तब भी बच्चों के लिए समय निकालना, उनकी पढ़ाई-लिखाई पर बराबर ध्यान रखना क्या सहज था! और फिर अम्मा-बाबूजी को कभी उपेक्षित भी तो नहीं छोड़ सकते थे। जब अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावजूद भी उनको बराबर समय दिया, उनसे बातचीत भी करते रहते, उनकी सुख-सुविधा का भी बराबर ध्यान रखते रहे। वे कितना खुश हो जाते थे...उनके चेहरे पर कितना संतोष का भाव आ जाता था।'
'तो क्या तुम्हारे बच्चे तुम्हारा ध्यान नहीं रखते, वे स्वयं से प्रतिप्रश्न कर ही रहे थे कि उनकी विचार श्रृंखला तब भंग हो गई जब पास से गुजरते हुए एक युवती ने उनका अभिवादन किया और गुड मॉर्निंग कहा। उन्होंने भी जवाब में व्हेरी गुड मॉर्निंग कहा और पूछ लिया - 'बेटी, आज अकेले ही!' उनका ध्यान अभी भी बगीचे में योगासन और प्राणायाम की नौटंकी सी करते उन तीन-चार लोगों की तरफ लगा हुआ था।
'हाँ अंकल, आज राहुल साथ में नहीं आए। कल ऑफिस से बहुत देर से लौटे थे।' कहते हुए वह बगीचे के पॉथ-वे पर टहलने निकल गई।
वे अभी भी बगीचे में लगी कुर्सी पर ही बैठे हुए थे और आने-जाने वालों पर निगाह रखकर अपना समय काट रहे थे। उस युवती के उत्तर ने उन्हें फिर विचार मग्न कर दिया। उन्होंने उस युवती से तो कुछ नहीं कहा और वैसे भी वह स्वयं भी उनसे आगे बातचीत करने के स्थान पर बिना इस बात की प्रतीक्षा किए कि वे शायद और भी कुछ कहना चाहेंगे, स्वयं ही आगे टहलने के लिए बढ़ गई थी। संभवतः वह जानती थी कि अन्य बड़े-बूढ़ों की तरह ही वे भी कुछ न कुछ लेक्चर ही झाडेंगे।
बहरहाल, उनके दिमाग में कई बातें यहां-वहां हो रही थी, उन्होंने मन ही मन कहा भी- 'हो सकता है कि राहुल ने रात को कुछ ज्यादा ही ड्रिंक ले ली होगी, तभी तो सुबह देर तक पलंग तोड़ता पड़ा रहा होगा।' आजकल के बच्चों का क्या है, लापरवाह और गैरजिम्मेदार जो ठहरे! हम भी देर रात तक अपनी ड्यूटी बजाते थे और फिर पार्टियां भी क्या कम होती थीं। हफ्ते में एक-दो दिन ही घर पर डिनर कर पाते थे वरना तो रोजाना ही कहीं न कहीं! वैसे जहां पावर अपने हाथों में हो, वहां लोग अपने आगे-पीछे बने ही रहते हैं। कितना मान-सम्मान और पूछ-परख होती थी। अब हम रिटायर हो गए हैं, गैर तो गैर घरवालों की नजरों में भी बेमतलब के हो गए हैं। किसी को हमसे कोई मतलब ही नहीं। वरना तो एक समय था जब हमारे जलवे थे तब डिनर पार्टियों से लौटने पर लड़खड़ाते कदमों से जब बंगलें में प्रवेश करते थे तब भी किसी को गिला-शिकवा न होता था और अब महीने-पन्द्रह दिन में दो पैग की भी बात करते हैं तो घर सिर पर उठा लिया जाता है। रिटायर्ड आदमी की शायद घर में कोई वैल्यू ही नहीं रह जाती है। पत्नी का भी तो साथ नहीं मिलता है इस उम्र में! अन्यथा तब तो उन्हें भी किटी पार्टी से ही फुर्सत कहां मिलती थी। पार्टी के बाद भी सुबह जागने का हमारा वही क्रम रहता था। घर-परिवार की जिम्मेदारी के साथ अपनी नौकरी में भी तो जवाबदार बने रहे लेकिन आज कोई हमारी सलाह को तवज्जो ही नहीं देता।'
'अरे छोड़ो, वह तो पद-प्रतिष्ठा थी, सुख-सुविधा थी, अफसरी का रौब था और कहीं लूपलाइन में न डाल दिए जाओ, इसके लिए दिन-रात खटते रहते थे।' उनके मन के कोने से आवाज आई।
'नहीं-नहीं, ऐसा नहीं था। हमने स्वाभिमान के साथ नौकरी की। किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी कि कोई कुछ कह सके...घर में भी और बाहर भी।' उन्होंने स्वयं को बखाना।
'हा हा हा, स्वाभिमान, नौकरी में स्वाभिमान! स्वाभिमान की पट्टी तो घर-परिवार और रिश्तेदारों में बहुत पढ़ाते रहे, लेकिन सच बताओ कि क्या उच्चाधिकारियों के सामने अपना स्वाभिमान बनाए रख पाते थे! और फिर जिन्हें तुम टटपुँजिया नेता-पत्रकार कहते थे, वे ही तुम्हें तुम्हारी औकात दिखा जाते थे और तुम केवल मन मसोसकर रह जाते थे, तब का क्या! और हाँ, जब कुछ जरूरी और समयावधि के काम पूरे करना होते थे तब भी मातहतों की खुशामद करने में तुम कहाँ पीछे रहे। यह बात जरूर है कि बाद में आँख दिखाने और आँख फेर लेने में भी तुमसा कोई दूसरा नहीं रहा होगा।'
'चुप रहो, क्या फिजूल की बात लेकर बैठ गए। नौकरी-चाकरी में तो यह सब करना ही पड़ता है। साम, दाम, दंड, भेद की नीति अगर नहीं अपनाएं तो जीवन में कभी सफल हो ही नहीं सकते।' कहकर उन्होंने अपने मन को तसल्ली देनी चाही।
इतनी देर में भीतर के अन्तर्द्वन्द्व से वे अब बहुत ज्यादा आहत हो चुके थे और अभी जल्दी घर लौटना भी नहीं चाह रहे थे। खुले आकाश में उड़ते पंछी का कतरे पंखों के साथ जिंदगी जीना क्या होता है, अब उन्हें समझ में आने लगा था। अतः पॉथ-वे पर बड़ी देर से टहल रहे दो-तीन अपने सम वय वृद्धों की तरह ही वे भी कदमों को लगभग घसीटते हुए चल पड़े लेकिन उनके दिमाग में फिर वही प्रश्न कुदबुदाने लगा जो उनके अन्तर्मन से चिल्ला-चिल्लाकर पूछ रहा था कि 'क्या तुम्हारे बच्चे भी तुम्हारा ध्यान नहीं रखते?'
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