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नकली दोस्त

डॉ. कृष्ण कांत श्रीवास्तव

एक जंगल में एक शेर रहता था। गीदड़ उसका सेवक था। जोड़ी अच्छी थी। शेरों के समाज में तो उस शेर की कोई इज्जत नहीं थी, क्योंकि वह जवानी में सभी दूसरे शेरों से युद्ध हार चुका था, इसलिए वह अलग-थलग रहता था।
उसे गीदड़ जैसे चमचे की सख्त जरूरत थी जो चौबीस घंटे उसकी चमचागिरी करता रहे। गीदड़ को बस खाने का जुगाड़ चाहिए था। पेट भर जाने पर गीदड़ उस शेर की वीरता के ऐसे गुण गाता कि शेर का सीना फुलकर दुगना चौड़ा हो जाता।
एक दिन शेर ने एक बिगड़ैल जंगली सांड का शिकार करने का साहस कर डाला। सांड बहुत शक्तिशाली था। उसने लात मारकर शेर को दूर फेंक दिया, जब वह उठने को हुआ तो सांड ने फां-फां करते हुए शेर को सींगों से एक पेड़ के साथ रगड़ दिया।
किसी तरह शेर जान बचाकर भागा। शेर सींगों की मार से काफी जख्मी हो गया था। कई दिन बीते, परंतु शेर के जख्म ठीक होने का नाम नहीं ले रहे थे। ऐसी हालत में वह शिकार नहीं कर सकता था।
स्वयं शिकार करना गीदड़ के बस की बात नहीं थी। दोनों के भूखो मरने की नौबत आ गई। शेर को यह भी भय था कि खाने का जुगाड़ समाप्त होने के कारण गीदड़ उसका साथ न छोड़ जाए।
शेर ने एक दिन उसे सुझाया, 'देख, जख्मों के कारण मैं दौड़ नहीं सकता। शिकार कैसे करूं? तु जाकर किसी बेवकूफ-से जानवर को बातों में फंसाकर यहां ला। मैं उस झाड़ी में छिपा रहूंगा।
गीदड़ को भी शेर की बात जंच गई। वह किसी मूर्ख जानवर की तलाश में घूमता-घूमता एक कस्बे के बाहर नदी-घाट पर पहुंचा। वहां उसे एक मरियल-सा गधा घास पर मुंह मारता नजर आया। वह शक्ल से ही बेवकूफ लग रहा था।
गीदड़ गधे के निकट जाकर बोला 'पांय लागूं चाचा। बहुत कमजोर हो आए हो, क्या बात है?'
गधे ने अपना दुखड़ा रोया, 'क्या बताऊं भाई, जिस धोबी का मैं गधा हूं, वह बहुत क्रूर है।
दिनभर ढुलाई करवाता है और चारा कुछ देता नहीं।'
गीदड़ ने उसे न्‍यौता दिया- 'चाचा, मेरे साथ जंगल चलो, वहां बहुत हरी-हरी घास है। खूब चरना तुम्हारी सेहत बन जाएगी।'
गधे ने कान फड़फड़ाए- 'राम-राम। मैं जंगल में कैसे रहूंगा? जंगली जानवर मुझे खा जाएंगे।'
'चाचा, तुम्हें शायद पता नहीं कि जंगल में एक बगुला भगतजी का सत्संग हुआ था। उसके बाद सारे जानवर शाकाहारी बन गए हैं।
गीदड़ बोला- अब कोई किसी को नहीं खाता और कान के पास मुंह ले जाकर दाना फेंका, 'चाचू, पास के कस्बे से बेचारी गधी भी अपने धोबी मालिक के अत्याचारों से तंग आकर जंगल में आ गई थी।
वहां हरी-हरी घास खाकर वह खूब लहरा गई है, तुम उसके साथ घर बसा लेना।'
गधे के दिमाग पर हरी-हरी घास और घर बसाने के सुनहरे सपने छाने लगे। वह गीदड़ के साथ जंगल की ओर चल दिया। जंगल में गीदड़ गधे को उसी झाड़ी के पास ले गया, जिसमें शेर छिपा बैठा था।
इससे पहले कि शेर पंजा मारता, गधे को झाड़ी में शेर की नीली बत्तियों की तरह चमकती आंखें नजर आ गईं। वह डरकर उछला, गधा भागा और भागता ही गया।
शेर बुझे स्वर में गीदड़ से बोला-'भाई, इस बार मैं तैयार नहीं था। तुम उसे दोबारा लाओ इस बार गलती नहीं होगी।'
गीदड़ दोबारा उस गधे की तलाश में कस्बे में पहुंचा।
उसे देखते ही बोला- 'चाचा, तुमने तो मेरी नाक कटवा दी। तुम अपनी दुल्हन से डरकर भाग गए?'
'उस झाड़ी में मुझे दो चमकती आंखें दिखाई दी थीं, जैसी शेर की होती हैं। मैं भागता नहीं तो क्या करता?' गधे ने शिकायत की।
गीदड़ नाटक करते हुए माथा पीटकर बोला- 'चाचा ओ चाचा! तुम भी पूरे मूर्ख हो। उस झाड़ी में तुम्हारी दुल्हन थी। जाने कितने जन्मों से वह तुम्हारी राह देख रही थी।
तुम्हें देखकर उसकी आंखें चमक उठीं तो तुमने उसे शेर समझ लिया?'
गधा बहुत लज्जित हुआ-क्योंकि गीदड़ की चालभरी बातें ही ऐसी थीं। गधा फिर उसके साथ चल पड़ा। जंगल में झाड़ी के पास पहुंचते ही शेर ने नुकीले पंजों से उसे मार गिराया। इस प्रकार शेर व गीदड़ का भोजन जुटा।
सार - दूसरों की चिकनी-चुपड़ी बातों में आने की मूर्खता कभी नहीं करनी चाहिए।
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