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नरेंद्र की जीत

मुकेश ‘नादान’

'एकरसता उनसे सहन नहीं होती थी, अत: नित्य नवीन आनंद के उपाय की खोज करनी पड़ती थी। तब यहाँ यह कह देना भी आवश्यक है कि उनके स्वभाव में जैसी एक स्वाभाविक पवित्रता थी तथा परिवार की सुशिक्षा ऐसी सुंदर थी कि उनके पाँव कभी बेताल नहीं पड़ पाते थे। साथियों में किसी के अवांछनीय रहने पर भी वह उन्हें प्रभावित करने में समर्थ नहीं हो पाते। निर्मल आनंद की खोज में व्यस्त रहकर उन्होंने एक बार अपनी पसंद का एक थियेटर दल गठित कर लिया और अपने मकान के पूजाघर के बरामदे में कई बार अभिनय किया। किंतु अपने एक छोटे चाचा के द्वारा इस विषय में आपत्ति करने पर थियेटर की स्टेज के बदले मकान के प्रंगण में व्यायाम के लिए एक अखाड़ा तैयार किया। मित्रगण वहाँ नियमित व्यायाम करते थे। दुर्भाग्यवश वहाँ एक चचेरे भाई का कसरत करते समय हाथ टूट गया। इसी से चाचा ने व्यायाम के सारे सामान नष्ट कर दिए। फलत: अखाड़ा भी बंद हो गया।
इसके बाद नरेंद्रनाथ ने अपने पड़ोसी नवगोपाल बाबू के जिमनास्टिक के अखाड़े में नाम लिखवाया। नवगोपाल बाबू हिंदू मेला के प्रवर्तक और हिंदुओं की सर्वांगीण उन्नति के आकांक्षी थे। उपयुक्त स्थान पाकर नरेंद्र ने शरीर को सबल-सशक्त बनाने में मन लगाया। अखाड़ा कॉर्नवालिस स्ट्रीट के ऊपर स्थित था। अखाड़े के सदस्य के रूप में नरेंद्रनाथ ने लाठी भाँजने, तलवार चलाने, तैरने, कुश्ती तथा अन्य व्यायामों में दक्षता प्राप्त की। एक बार व्यायाम प्रदर्शन में उन्होंने मुक्केबाजी में प्रथम पुरस्कार के रूप में एक चाँदी की तितली प्राप्त की थी।
लाठी भाँजने में उन्हें अधिक रूचि थी। अखाड़े में एवं अखाड़े के बाहर कुछ मुसलमान उस्तादों की सहायता से उन्होंने इस विद्या में विशेष निषुणता प्राप्त की थी। उनकी उम्र जब दस वर्ष की थी और वे मेट्रोपोलिटन स्कूल में पढ़ते थे, तब एक मेले के उपलक्ष्य में जिमनास्टिक का खेल दिखाया गया। दर्शक के रूप में नरेंद्र वहाँ उपस्थित थे। दूसरे खेलों के बाद लाठी भाँजने का खेल चलने पर जब उत्साह में कमी आ गई, तब नरेंद्र ने अकस्मात्‌ कहा, खेलने वालों में जो कोई मेरे विरोध में खड़ा होना चाहे, मैं उन्हीं के साथ खेलने को तैयार हूँ।
खिलाडियों में जो सबसे अधिक बलवान थे, वे ही आगे आए और ठतव्क्त-ठव्क्त शब्द के साथ प्रतिद्व॑द्विता शुरू हुई। नरेंद्र की अपेक्षा दूसरे व्यक्ति के उम्र और शक्ति में अधिक प्रबल होने के कारण परिणाम एक प्रकार से निश्चित ही था। तथापि बालक के कौशल और साहस को देखकर पल-पल प्रशंसा की वर्षा होने लगी। इधर नरेंद्र ने पैंतरा बदलते-बदलते अचानक कुशलतापूर्वक घोर आवाज करते हुए प्रतिद्वंद्वी पर एक ऐसा आघात किया कि उनके हाथ की लाठी दो टुकड़े होकर जमीन पर गिर गई। नरेंद्र की शिक्षा सार्थक हुईं। वे जीत गए और फिर दर्शकों के आनंद की सीमा न रही।

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