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नाच न जाने आंगन टेढ़ा

ईश्वर की बनाई इस सृष्टि में भांति-भांति के लोग हैं, जिनमें विभिन्न प्रकार की कमियां और खूबियां देखने को मिलती हैं। यह जरूरी नहीं कि एक व्यक्ति में सिर्फ कमियां ही हों और उसी प्रकार यह भी आवश्यक नहीं कि किसी एक व्यक्ति में सभी अच्छाइयां ही देखने को मिले। ईश्वर की बनाई इस दुनिया में सभी लोग अपनी-अपनी विशेषताएं लेकर जन्मे हैं। इन विशेषताओं के साथ प्रभु ने प्रत्येक व्यक्ति या यूं कहें कि सृष्टि की हर वस्तु में कोई ना कोई कसर बाकी छोड़ी है।
ईश्वर की इस लीला के पीछे शायद यही कारण हो सकता है कि यदि ईश्वर ने सभी को सर्वगुण संपन्न बनाया होता तो इस विश्व में किसी को किसी की जरूरत ही ना रह जाती और अहंकारवश सभी अपने को सर्वश्रेष्ठ मानते और जिसका परिणाम सृष्टि का अंत होता। इस प्रकार की स्थिति उत्पन्न न होने पाए इसलिए परमात्मा ने सभी व्यक्तियों को अलग-अलग खूबियों से नवाजा है। ईश्वर प्रदत्त इन खूबियों और कमियों को हमें दिल से स्वीकार करना चाहिए ना कि अपनी कमियों को छुपाना चाहिए और खूबियों का बढ़-चढ़कर बखान करना चाहिए।
कुछ लोगों की आदत होती है कि वे अपनी कमियों का ठीकरा दूसरों के सिर फोड़ने से बाज नहीं आते अर्थात ‘नाच ना आवे आंगन टेढ़ा’ वाली कहावत ऐसे ही अवसरों पर चरितार्थ होती दिखाई देती है। जहां लोग अपनी कमियों को छुपाने के लिए दूसरे लोगों में कमियां निकालना शुरू कर देते हैं। वह अक्सर भूल जाते हैं कि कमी तो उनके भी भीतर है। जिस प्रकार हम अपनी अपनी खूबियों पर नाज करते हैं उसी प्रकार हमें दूसरे के खूबियों की भी सराहना करनी आना चाहिए। दूसरों की अच्छाइयों और खूबियों से हमें कुछ नया सीखना चाहिए और अपनी कमियों को दूर करने हेतु यथासंभव कोशिश करनी चाहिए।
अपनी कमियों को छुपाकर हम आत्म संतुष्टि का अनुभव करते हैं। दूसरों को यह जताकर कि वे केवल खूबियों के पुतले हैं, वे न केवल स्वयं को धोखे में रखते हैं, अपितु दूसरों को भी बेवकूफ बनाने का निरर्थक प्रयास करते हैं। निरर्थक प्रयास इसलिए कहा क्योंकि ईश्वर ने सभी को दिमाग दिया है जिसके माध्यम से सभी लोग यह सोचने समझने की सामर्थ्य, क्षमता और शक्ति रखते हैं कि सामने वाला जो कह रहा है उसमें कितनी सच्चाई है। दूसरे व्यक्ति को एक सीमा तक ही हम मूर्ख बना सकता है। समय बीतने के साथ-साथ सभी को वास्तविक स्थिति समझ आने लगती है।
यहां बात दूसरे लोगों को संतुष्ट अथवा खुश करने की नहीं है क्योंकि यदि हम हमेशा दूसरों के बारे में ही सोचते रहेंगे तो स्वयं के विषय में कब सोचेंगे। दूसरों को संतुष्ट करने से पहले हमारा अपने लिए भी कर्तव्य बनता है कि हम स्वयं को संतुष्ट करें। आत्म संतुष्टि सबसे बड़ा धन समझा जाता है। जब हम स्वयं ही अपनी किसी बात से सरोकार नहीं रखेंगे। अपने किसी निर्णय पर स्वयं भरोसा नहीं करेंगे। तो हम स्वयं में आत्मविश्वास पैदा नहीं कर पाएंगे और आत्मविश्वास ना होने की स्थिति में हम दूसरों के समक्ष ज्यादा देर तक खड़े नहीं रह पाएंगे। इसलिए बेहतर यही होगा है कि अपनी कमियों को स्वीकार करें और खूबियों को निखारने का हर संभव प्रयास करें। कमियों को सुधारने वाला व्यक्ति उन लोगों से महान होता है जो अपनी गलतियों और कमियों को छुपाने का प्रयास करते हैं।
ईश्वर ने जैसा हमें बनाया है, हमें अपने उस रूप को ही पूरे दिल से स्वीकार करना चाहिए और प्रतिदिन ईश्वर का आभार व्यक्त करना चाहिए कि उन्होंने हमें मनुष्य का जीवन दिया और जिसकी वजह से ही हम इस सुंदर सृष्टि को देख पाए। हां इतना जरूर है कि अपनी कमियों को सुधारने का प्रयास हमें कभी नहीं छोड़ना चाहिए, साथ ही साथ अपनी खूबियों पर भी घमंड नहीं करना चाहिए क्योंकि रंग रूप अति क्षणिक होता है। समय बदलते देर नहीं लगती, परिवर्तन ही सृष्टि का नियम है।
ईश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए हमें समाज में रहते हुए एक दूसरे की सहायता करनी चाहिए और मानव कल्याण के लिए सदैव प्रयासरत रहना चाहिए।

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