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नानी का घर

मुकेश ‘नादान’

नरेंद्र का शरीर इतना हृष्ट-पुष्ट था कि वे सोलह वर्ष की आयु में बीस वर्ष के लगते थे। इसका कारण था नियमित रूप से व्यायाम करना। वे कुश्ती का भी अभ्यास करते थे।
शिमला मोहल्ला में कार्नवालिस स्ट्रीट के निकट एक अखाड़ा था, जिनकी स्थापना हिंदू मेले के प्रवर्तक नवगोपाल मित्र ने की थी। वहीं नरेंद्र अपने मित्रों के साथ व्यायाम करते थे। सर्वप्रथम मुक्केबाजी में उन्होंने चाँदी की तिली पुरस्कार के रूप में जीती थी। उस दौर में वे क्रिकेट के भी अच्छे खिलाड़ी थे। इसके अतिरिक्त उन्हें घुड़सवारी का भी शौक था। उनके इस शौक को पूरा करने के लिए विश्वनाथजी ने उन्हें एक घोड़ा खरीदकर दिया था।
नरेंद्र की संगीत में विशेष रुचि थी। उनके संगीत शिक्षक उस्ताद बनी और उस्ताद कांसी घोषाल थे। पखावज और तबला बजाना उन्होंने अपने इन्हीं उस्तादों से सीखा।
उनमें एक अच्छे वक्ता के गुण भी मौजूद थे। जब मेट्रोपोलिटन इंस्टीट्यूट के एक शिक्षक अवकाश ग्रहण करने वाले थे, तब स्कूल के वार्षिक पुरस्कार वितरण समारोह वाले दिन ही नरेंद्र ने उनके अभिनंदन समारोह का आयोजन किया। उनके सहपाठियों में से किसी में इतना साहस न हुआ कि कोई सभा को संबोधित करता। उस समय नरेंद्र ने आधे घंटे तक अपने शिक्षक के गुणों की व्याख्या की और उनके विछोह से उत्पन्न दुख का भी वर्णन किया। उनकी मधुर व तर्कसंगत वाणी ने सभी को अपने आकर्षण में बाँध लिया था।
मैट्रिक पास करने के बाद नरेंद्र ने जनरल असेंबली कॉलेज में प्रवेश लिया और एफ.ए. की पढ़ाई करने लगे। उस समय उनकी आयु अठारह वर्ष थी। उनकी तीत्र बुद्धि तथा आकर्षक व्यक्तित्व ने अन्य छात्रों को ही नहीं, बल्कि अध्यापकों को भी आकर्षित किया। जल्द ही वहाँ उनके कई मित्र बन गए।
कॉलेज में उनके विषय में उनके एक मित्र प्रियनाथ सिंह ने अपने संस्मरण में लिखा था- “नरेंद्र छेदो तालाब के निकट जनरल असेंबली कॉलेज में पढ़ते हैं। उन्होंने एफ.ए. वहीं से पास किया। उनमें असंख्य गुण हैं, जिसके कारण कई छात्र उनसे अत्यंत प्रभावित हैं। उनका गाना सुनकर वे आनंदमय हो उठते हैं, इसलिए अवकाश पाते ही नरेंद्र के घर जा पहुँचते हैं। जब नरेंद्र तर्कयुक्ति या गाना-बजाना आरंभ करते, तो समय कैसे बीत जाता है, साथी समझ ही नहीं पाते। इन दिनों नरेंद्र अपनी नानी के घर में रहकर अध्ययन करते हैं। नानी का घर उनके घर की निकटवर्ती गली में है। वह अपने पिता के घर केवल दो बार भोजन करने जाते हैं।”
नानी का घर बहुत छोटा था। नरेंद्र ने उसका नाम तंग रखा था। वे अपने मित्रों से कहते थे, “चलो तंग में चलें।” उन्हें एकांतवास बहुत पसंद था।
नरेंद्र में गंभीर चिंतन-शक्ति और तीक्ष्ण बुद्धि थी, जिसके बल पर वह सभी विषय बहुत थोड़े समय में सीख लेते थे। उनके लिए पाठ्य” पुस्तकें परीक्षा पास करने का साधन मात्र थीं। वह इतिहास, साहित्य और दर्शन की अधिकांश पुस्तकें पढ़ चुके थे, जिनसे उन्होंने अपने हृदय में ज्ञान का अपार भंडार संगृहीत कर लिया था।

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