मंजु लता
सुबह के सात बजे थे और डोर बेल बजी। आश्चर्य हुआ, इतनी सुबह कौन होगा? मैं चाय का कप ले कर दरवाजे की ओर गई। दरवाजा खोला तो देखा, आज गृह सहायिका की जगह पर उसका पति खड़ा था। गुस्से में दिख रहा था।
मैंने प्रश्न वाचक नज़रों से उसे देखा। छूटते ही बोला, "तुमने चपला को डाँटा।"
मैं हक्की-बक्की रह गई। फिर सम्हलते हुए बोली, हाँ, डाँटा तो था। घर के नियम तोड़ेगी। गलत काम करेगी तो बोलना तो पड़ेगा न!
वो पलट के और गुस्सा दिखाते हुए बोला, "तुम्हें पता है वो मेरी पत्नी है। तुम्हें कोई अधिकार नहीं है उसे डाँटने का।"
मैंने उसके मुँह न लगते हुए कहा, "हाँ तुम जाओ। अब नहीं डाँटूंगी।"
वो बड़-बड़ करता हुआ चला गया।
थोड़ी देर में ही चपला आ गई। काम शुरू करने से पहले ही मैंने रोक दिया।
"आज तेरा पति आया था मुझे धमकी देने। तुझे मेरी चौक चतुराई पता है न! गलती करेगी तो बोलना तो पड़ेगा न।" वह नीचे मुँह किये सुनती रही।
मैंने कहा,"देख तू मेरे घर काम करती है, तेरा पति नहीं।"
"अच्छा बता, तू दो महीने पहले काम छोड़ कर चली गई थी न! मैं तुझे बुलाने तो न आई थी। तू खुद काम माँगने आई और अब यह नाटक! मुझे बिल्कुल पसंद नहीं।
अच्छा सुन, आज तो 21 तारीख हुई है। तू पूरे महीने की पगार ले। अब कल से काम पर मत आना। समझी।"
हे ईश्वर! भलाई का तो जमाना ही नही। सोचते हुए मैं धम्म से सोफे पर बैठ गई। पुरानी फ़िल्म की रील चलने लगी आँखों के आगे। हर तरह से मदद की मैंने इसकी और यह सिला। चपला पैसे उठा कर चुपचाप चली गई।
अपने निर्णय को लेकर मैं सोच रही थी, "आस्तीन के साँपों को पालने के बजाय उन्हें दूर रखने के लिए आस्तीन ही काट देना चाहिए।"
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