रमाकांत शुक्ला
लड़की की मंगनी को सात महीने हो गए थे। मगर लड़के वालों को मनमुताबिक शुभ मुहूर्त नहीं मिल रहा था, सो शादी में देर हो रही थी। लड़के वालों के पंडित जी ने एक अच्छा मुहूर्त बताया भी तो इस बीच लड़के के दादा जी लम्बी बीमारी के चलते भगवान को प्यारे हो गए। ऐसे में एकबार फिर से शादी की तारीख आगे बढ़ गई। खैर मंगनी को साल भर बीत गया था। जैसे-तैसे एक अच्छे दिन पर शादी की तारीख तय हुई। ऐसे में लड़के के परिवार वाले लड़की के घर आए थे। चाय नाश्ते का प्रोग्राम चल ही रहा था कि लड़की के पिता ने जानकारी लेने के लिए लड़के के पिता से पूछा बारात में कितने लोग आएंगे भाई साहब तीन साढ़े तीन सौ बाराती तो मान कर चलिए। लड़के के पिता ने मूंछों पर ताव देते हुए कहा।
जी...तीन साढ़े तीन सौ तो बहुत ज्यादा हो जाएंगे, लड़की के पिता ने धीमे और चिंतित होते हुए कहा।
अब क्या करें भाई साहब हमारा इतना बड़ा परिवार है और ये तो अपने ही बन्दे हैं। सच कहूं तो अभी बाहर के लोगो को तो गिना ही नही है।
लड़की का मामा जो वहां बैठे थे और लड़के की दादाजी के भोग में भी शामिल हुए थे। उसे याद आया कि उसके भोग में तो साठ सत्तर से भी कम लोग शामिल हुए थे। उनमें भी दस बारह तो उनके ही परिवार के ही थे। चूंकि मामला लड़की के रिश्तेदारी का था तो ....
उसने अपने जीजा जी की ओर देखा, जिनका चेहरा उतर गया था। वहीं अपनी भांजी की ओर देखा तो वो भी अपने पिता की आर्थिक स्थिति से अवगत थी। सो उसके चेहरे पर भी चिंता की रेखाएं उभर रही थी। उनकी चुप्पी और लड़के वालों की यूं बारातियों की डिमांड को देख लड़की के मामा खड़े होकर बोले भाई साहब आपके पिता जी की अंतिम क्रियाओं में तो आप से सौ लोग भी इकट्ठा ना हो सके थे, तो बारात में आने वाले ये तीन साढ़े तीन सौ लोग कौन से अपने है।
अब लड़के वाले लड़की के मामा की बात सुनकर शर्मिंदगी से एक-दूसरे की शक्ल देख रहे थे।
तब लड़की के मामा ने कहा भाईसाहब अपने वो होते हैं जो दुःख में साथ खड़े हो ना की खुशी में खाने पीने वाले, कहकर उसने दोनों हाथों को जोड़कर अपना निर्णय सुना दिया।
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