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निश्चिन्ती

निरंजन धुलेकर

इनकी शुरू से एक आदत है। सोते समय या तो मेरा हाथ पकड़ लेंगे या मेरे गाल पर हाथ रख कर सोएंगे, कुछ नही तो साड़ी का पल्लू ही हाथ में ले कर सो जाएंगे। एक बार मज़ाक में पूछा तो बोले कि बस मुझे अच्छा लगता है।
जैसे कोई छोटा बच्चा माँ का आँचल पकड़ कर सेफ महसूस करता है ठीक वैसे ही पर इनका माजरा कुछ और ही है।
आज दोनों कामवालियां गायब, कुक भी गायब, किसी की डेथ हो गयी इनकी बिरादरी में सो वहीं गयीं इकट्ठी, ये भी रात नौ बजे लौटे। काम निपटाते मैं बेहद थक कर आ लेटी।
आज इनका हाथ मेरे गालों पर नही मेरे बालों में घूम रहा था जैसे कुछ खोज रहा हो। मुझे सब पता है ख़ुद की परेशानियां भूल इन्हें मेरी चिंता हो रही है।
मुँह से कुछ बोलेंगे नही बस ये स्पर्श ही अहसास दिला जाते हैं। मैं इस तरह चुपचाप लेटी हुई इन्हें बिल्कुल अच्छी नही लगती।
हाथ फेरते हुए पूछ लिया, "परेशान हो न थक गई न, कुछ कहना है क्या सोच रही हो, कोई प्रॉब्लम, कुछ चाहिए?"
बस, इनका इधर ये पूछना और उधर मैं सब भूल जाती हूँ कि क्या सोच रही थी, क्या काम बाकी था, क्या दिमाग में चल रहा था, सब गायब हो जाता है।
इनको जवाब देने के लिए याद करने लगती हूँ और फिर से चुप हो जाती हूँ और इन्हें मेरी चुप्पी से उलझन होती है और मुझे इनके सवाल न करने से।
मैं जब इनका हाथ अपने गालों पर रखती हूँ तब जा कर इन्हें तसल्ली होती है कि मैं निश्चिन्त हूँ।
पर सच तो ये है कि मुझे भी तभी नींद आती है जब मुझे ये तसल्ली हो जाती है कि ये मेरी तरफ से एकदम निश्चिन्त हैं।

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