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निषिद्ध भोजन

मुकेश ‘नादान’

एक दिन नरेंद्र होटल में खाना खा आया और आकर श्रीरामकृष्ण देव से कहा, “महाराज, आज एक होटल में, साधारण लोग जिसे निषिद्ध कहते हैं, वह खा आया हूँ।”
श्रीरामकृष्ण ने समझ लिया कि नरेंद्र बहादुरी दिखाने के लिए वैसी बात नहीं कर रहा है, बल्कि उसने वैसा काम किया है कि यह जानकर उसे स्पर्श करने या घर का लोटा, घड़ा आदि का इस्तेमाल करने में यदि उन्हें आपत्ति हो तो पहले से ही सावधान कर देने के लिए वैसा कह रहा है। ऐसा समझकर श्रीरामकृष्ण ने उत्तर दिया, “तुझे उसका दोष नहीं लगेगा। मांस खाकर भी यदि कोई भगवान्‌ में मन लगाता है, तो वह पवित्र हो जाता है। और साग-भाजी खाकर यदि विषय-भोग में डूबा रहे, तो वह मांस खाने वाले की अपेक्षा किसी तरह से कम नहीं है। तूने निषिद्ध वस्तु खाई है, उससे मुझे कुछ भी बुरा मालूम नहीं हो रहा है।”
श्रीरामकृष्ण नरेंद्रनाथ की परीक्षा लेते, उन पर विश्वास करते, उन्हें प्यार करते और प्रेमपूर्वक अध्यात्म के जीवन-पथ पर बढ़ने का उपदेश करते। यह श्रीरामकृष्ण की अपनी स्नेह सिक्‍त नियमन की रीति थी। कई क्षेत्रों में यह रीति रंग-रस का रूप भी धारण कर लेती थी।
नरेंद्र ने एक बार श्रीरामकृष्ण के समक्ष कुछ भक्तों के विश्वास की अंधविश्वास कहकर निंदा की। इस पर श्रीरामकृष्ण ने कहा था, “विश्वास में “अंधा' क्‍या होता है? विश्वास की भी क्या आँखें होती हैं? या तो विश्वास कह या फिर ज्ञान कह। 'अंधा' और 'आँखवाला' विश्वास ये सब क्या हैं? ”
शुरू-शुरू में नरेंद्रनाथ काली, कृष्ण आदि देवी-देवताओं को नहीं मानते थे और अद्वैतवाद को भी स्वीकार नहीं करते थे। “सभी ब्रह्म है।” इस बात को सुनकर उन्होंने परिहास करते हुए कहा था, “क्या ऐसा भी कभी संभव है?
ऐसा होने पर तो लोटा भी ब्रह्म है और कटोरा भी ब्रह्म है!” सगुण-निराकार, ब्रह्म की दूवैत भाव से उपासना करने वाले नरेंद्र जीवन और ब्रह्म में अभेद है, इसे स्वीकार करने में संकोच का अनुभव करता और कहता, “नास्तिकता से यह किस प्रकार भिन्‍न है? सृष्टि जीव अपने को सृष्टा समझे, इससे अधिक पाप और क्या हो सकता है? ग्रंथकर्ता ऋषि-मुनियों का मस्तिष्क अवश्य ही विकृत हो गया था, नहीं तो ऐसी बातें वे कैसे लिख सकते थे? ”
स्पष्टवादी नरेंद्र के स्वरूप के प्रति स्थिर दृष्टि रखने वाले श्रीरामकृष्ण इस प्रकार की विपरीत आलोचना से भी विचलित हुए बिना केवल हँसते और अपने योग्य शिष्य की स्वतंत्र विचारधारा को जबरदस्ती नहीं बदलकर तर्कपूर्ण कोमल प्रतिवाद के स्वर में कहा करते, “तू इस समय उनकी बातें न लेना चाहे तो न ले, पर ऋषि-मुनियों की निंदा और ईश्वर के स्वरूप की इतिश्री क्यों करता है? तू सत्यस्वरूप भगवान्‌ को पुकारता चल, उसके बाद वे जिस रूप में तेरे सामने प्रकट होंगे, उसी पर विश्वास कर लेना।”
नरेंद्र की विरोधी युक्तियों के बावजूद श्रीरामकृष्ण उन्हें श्रेष्ठ अधिकारी मानकर अद्वैतवाद के विषय में सुनाया करते तथा दक्षिणेश्वर आने पर “अष्टावक्र संहिता' आदि अद्वैत-विषयक ग्रंथों का पाठ करते। फिर एक दिन की घटना कुछ दूसरे रूप में ही आ उपस्थित हुई।
इन सब विषयों में कालीबाड़ी निवासी श्री प्रतापचंद्र हाजरा नरेंद्र से सहमत थे। हाजरा महाशय की आर्थिक अवस्था अच्छी नहीं थी। इस कारण धर्म-लाभ के लिए ऊँची आकांक्षा रहने पर भी धन-प्राप्ति की कामना ने उनके जीवन को जटिल कर दिया था। वे दक्षिणेश्वर में रहकर साधनारत होने पर भी सिद्धि-लाभ कर अर्थ-उपार्जन की लालसा भी अपने मन में रखते थे, फिर समागत श्री रामकृष्ण के अनुरागी भक्तों को समझाना चाहते कि वे कोई कम साधू नहीं हैं। हाजरा को श्रीरामकृष्ण भली-भाँति पहचानते थे। इसी से वे युवा भक्तों को सावधान कर देते, “मूर्ख हाजरा की भारी बनियाई बुद्धि है, उसकी बात मत सुनना।” फिर भी हाजरा के साथ नरेंद्र की अच्छी मित्रता थी-तंबाकू सेवन के लिए भी और हाजरा महाशय की सहसा किसी बात को न मानकर उसके विरुद्ध तर्कयुक्ति उपस्थित करने की उपयुक्त बुद्धिमत्ता के लिए भी। दोनों के ऐसे भाव को देखकर श्रीरामकृष्ण कहते, “हाजरा महाशय नरेंद्रनाथ के 'फेरेंड' (मित्र) हैं।”
नरेंद्रनाथ के दक्षिणेश्वर आने पर आनंद की लहरें उठने लगती थीं।
नरेन्द्रनाथ गीत पर गीत गाते जाते। श्रीरामकृष्ण उस पावन पवित्र सुमधुर कंठ से आत्मतत्व सुनकर समाधिस्थ हो जाते और फिर अर्ध-ब्रह्मज्ञान में लीन होकर कोई विशेष गीत सुनना चाहते। अंत में नरेंद्रनाथ के मुख से भक्तिमूलक या आत्मसमर्पण-सूचक “तुझसे हमने दिल को लगाया, जो कुछ है सो तू ही है।' आदि अथवा ऐसे ही किसी भजन के न सुनने तक उन्हें पूर्ण परितृप्ति नहीं होती थी। इसके पश्चात्‌ अद्वैतवाद के गंभीर तत्त्वों के संबंध में श्रीरामकृष्ण अनेक उपदेश दिया करते थे। नरेंद्रनाथ सुनते जाते थे किंतु वे उपदेश पूर्णतः समझ नहीं पाते थे।

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