विभा गुप्ता
मकर-संक्रांति का त्योहार आया नहीं कि नीला आसमान रंग-बिरंगे पतंगों से सज जाते हैं। कड़कड़ाती ठंड में भी छत पर बैठकर गुनगुनी धूप सेंकते हुए और दही-चूड़ा के साथ तिलकुट खाने का आनंद लेते हुए आकाश से गिरती हुई कटी-पतंग को लूटने में जो खुशी मिलती है, उसे बयान नहीं किया जा सकता है। लूटी हुई पतंग को हाथ में लेकर स्वयं के अमीर होने का एहसास होता है। खुले आकाश में पेंच लड़ाते हुए इन पतंगों को देखकर बचपन का एक किस्सा मुझे बरबस ही याद आ गया।
मैं उस वक्त तीसरी कक्षा में पढ़ रही थी। मेरे श्रवण चाचा मकर-संक्रांति का त्योहार मनाने हमारे घर आये हुए थें। मैं बहुत खुश थी कि चाचा पतंग उड़ायेंगे तो मुझे भी पतंग उड़ाने को मिलेगा। भाई की दादागिरी के कारण तो कभी मौका मिला नहीं था। दही-चूड़ा के साथ गोभी-बैंगन की सब्ज़ी खाकर हम भाई-बहन छत पर पहुँचे, चाचा तो पहले ही पहुँच चुके थें। उन्होनें पतंग के साथ मांझा की चरखी भी तैयार कर ली थी। भाई को पतंग देकर उड़ाने को कहा और खुद चरखी के मांझे (मोटा धागा) को ढ़ील देने लगे। मेरे घर से उड़ती पतंग को देखने मेरी सहेली रीमा जो साथ वाले मकान में रहती थी, अपनी दीदी जो कि इंटर में पढ़ती थीं, के साथ छत पर आ गई। पतंग उड़ाते हुए चाचा की नज़र रीमा की दीदी पर पड़ी तो मुझसे पूछने लगे कि रीमा के साथ कौन है? मैंने कहा," उसकी दीदी।"
" दीदी!" चाचा चौंक पड़े। बोले, " पहले तो कभी देखा नहीं।"
" दीदी हॉस्टल में पढ़ती थीं ना, अब यहीं पर नाम लिखा लिया है।" मेरी खबर पूरी होते ही चाचा ने चरखी भाई को थमा दिया और स्वयं आकाश में पतंग देखने के बहाने रीमा की दीदी को देखने लगे। मैं तो इस इंतज़ार में आसमान निहार रही थी कि कब कोई पतंग कटकर हमारी छत से गुजरे और हम भाई-बहन डंडा मारकर उसे लूट ले। उस दिन हमें पतंग तो नहीं मिली लेकिन हमारे चाचा के नैनों की पेंच रीमा की दीदी से अवश्य लड़ गई थी। संक्रांति के बाद भी चाचा एक सप्ताह तक पतंग उड़ाने के बहाने छत पर नियमवत जाते रहे और रीमा की दीदी भी आतीं रहीं।
एक दिन दीदी जब छत पर नहीं आईं तो चाचा ने मुझे संदेशवाहक बनाया और एक चिट्ठी देकर कहा कि रीमा की दीदी को दे आ। मैं उछलती-कूदती रीमा के घर पहुँच गई। सामने ही चाची (रीमा की माँ) के साथ बैठी दीदी दिख गईं। अब मुझे कोई हिदायत तो दी नहीं गई थी, सो मैंने चाची के सामने ही दीदी को चिट्ठी देते हुए अपनी तरफ़ से कह दिया कि चाचा आपको छत पर बुलाए हैं। सुनकर चाची ने मुझे घूरकर देखा और दीदी से चिट्ठी झपटकर पढ़ने लगी। उनकी गुस्से से लाल आँखें देखकर मैं तो घर वापस आ गई परन्तु चाचा जी का अगले दिन की ही वापसी का टिकट कट गया।
उसके बाद से चाचा जब भी हमारे घर आये, एक दिन से ज़्यादा उन्हें रुकने नहीं दिया गया। वे छत पर जाते थें लेकिन दीदी से उनकी मुलाकात नहीं हो पाती थी, ये उनके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे जाता था। खैर,दो सालों तक चाचा का आना-जाना लगा रहा और एक दिन जब आये तो बातों-बातों में माँ ने उन्हें रीमा की दीदी की शादी पक्की होने की खबर सुना दी। बेचारे...मेरे चाचा! दुखी होकर उस दिन जो गये तो फिर मेरी अपनी पत्नी यानि मेरी चाची के संग ही वापस आये।
ऐसे ही कितने किस्से सर्दी में ठिठुरते, धूप सेंकते और पतंग उड़ाते बन जाते हैं जो हमें ताउम्र याद रह जाते हैं और कभी-कभी याद आकर मन को भी गुदगुदा जाते हैं।
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