रवीन्द्रनाथ ठाकुर
मेरी पड़ोसिन बाल-विधवा है। मानो वह जाड़ों की ओस, भीगी पतझड़ी हरसिंगार हो। सुहागरात की फूलों की सेज के लिए नहीं, वह केवल देवपूजा के लिए समर्पित थी।
मैं उसकी पूजा मन-ही-मन किया करता था। उसके प्रति मेरा मनोभाव कैसा था, उसे मैं पूजा के अतिरिक्त किसी अन्य सुबोध शब्दों में प्रकट नहीं करना चाहता, दूसरों के सामने कभी नहीं, अपने प्रति भी नहीं।
नवीन माधव मेरा बहुत ही घनिष्ठ एवं प्रिय मित्र है। उसे भी इस बारे में कुछ नहीं मालूम। इस प्रकार मैंने अपने अन्तरतम में जिस आवेश को छुपाकर साफ-सुथरा बना रखा था, उसके लिए भीतर-ही-भीतर गर्व का अनुभव भी करता था।
परन्तु पहाड़ी नदी की तरह मन का वेग अपने जन्म-शिखर से बंधा नहीं रहना चाहता। किसी भी रास्ते को अपनाकर वह बाहर निकलने की कोशिश करता है। इसमें अगर वह सफल नहीं हो पाता, तो भीत-ही-भीतर कसक उत्पन्न करता है। इसलिए मैं यह सोच रहा था कि कविता में मैं अपने भाव प्रकट करूंगा, लेकिन कुंठा की मारी लेखनी ने किसी तरह भी आगे बढ़ना ना चाहा।
बड़े आश्चर्य का विषय तो यह है कि ठीक इसी समय हमारे मित्र नवीन माधव को अचानक बड़े ही प्रबल वेग से कविता लिखने का शौक बढ़ने लगा, मानो अचानक भूचाल आ गया हो।
उस बेचारे पर ऐसी दैवी विपत्ति पहले कभी न आई थी, इस कारण वह इस नई-नवेली हलचल के लिए बिल्कुल तैयार न था। उसके पास छंद, तुक आदि की पूंजी नहीं थी, फिर भी उसका दिल छोटा न हुआ, यह देखकर मैं दंग रह गया। कविता मानो बुढ़ापे की नई दुल्हन की तरह उस पर हावी हो गई। नवीन माधव को छंद तुक आदि की सहायता और संशोधन के लिए मेरी शरण लेनी पड़ी।
कविता के बिषय नये नहीं थे, लेकिन पुराने भी नहीं थे। यानी उन्हें बिल्कुल नवीन भी कहा जा सकता है और काफी पुरातन भी। प्रेम की कवितायें थी, प्रियतमा के उद्देश्य में। मैंने उसे एक धक्का लगाते हुए पूछा, ”आखिर है कौन, बताओ भी।”
नवीन ने हँसकर कहा, ”अब भी उनका पता नहीं लगा पाया हूँ।”
नये लेखक को सहयोग देने में मुझे बड़ा संतोष मिला। नवीन की काल्पनिक प्रियतमा के प्रति मैंने अपने रूके आवेग का प्रयोग किया। बिना बच्चे की मुर्गी जिस तरह बत्तख का अंडा पा जाने पर भी उसे छाती के नीचे रखकर सेने लगती है, मैं अभागा भी उसी तरह नवीन माधव के भावों को अपने ह्रदय का सारा ताप देकर सेने लगा। अनाड़ी की रचनाओ का मैं ऐसे जोश-खरोश से संशोधन करने लगा कि वे करीब-करीब पंद्रह आने मेरी ही रचनायें बन गईं।
नवीन आश्चर्य से कहता, ”ठीक यही बात तो मैं कहना चाहता था, पर कह नहीं पाता था, लेकिन तुममें यह सब भाव कहाँ से आ जाती है?”
मैं भी कवि की तरह जवाब देता, “कल्पना से। इसका कारण यह है कि सत्य नीरव होता है और कल्पना वाचाल। सत्य घटनायें भाव स्त्रोत को पत्थर की तरह दबाये रखती हैं, कल्पना ही उसका मार्ग मुक्त करती है।”
नवीन गंभीर चेहरा लिए कुछ देर सोचता, फिर कहता, ”देख रहा हूँ बात कुछ ऐसी ही है। ठीक कहते हो।” थोड़ी देर सोचने के बाद फिर कहा, ”ठीक ही कहते हो। सही बात है।”
पहले ही बता चुका हूँ कि मेरे प्रेम में एक प्रकार का कातर संकोच है, इसीलिए मैं अपनी बात कुछ भी लिख नहीं सका। नवीन को पर्दे की तरह बीच में रखने के बाद ही मेरी लेखनी अपना मुँह खोल सकी। रचनायें मानो रस से पूर्ण हो ताप से फटने लगी।
नवीन बोला, ”यह तो तुम्हारी ही रचना है। इसे तुम्हारे ही नाम से प्रकाशित करें।”
मैंने कहा, ”भाई तुमने भी खूब कहा। मूल रचना तो तुम्हारी ही है, मैंने तो उसमें सिर्फ थोड़ा-सा रद्दोबदल कर दिया है।”
धीरे-धीरे नवीन भी ऐसा ही समझने लगा।
ज्योतिर्विद जिस प्रकार नक्षत्र के उदय की प्रतीक्षा में आकाश की ओर निहारा करता है, मैं भी उसी तरह कभी-कभी अपने बगल के मकान की खिड़की की ओर देखा करता था, इस बात को अस्वीकार नहीं कर सकता। कभी-कभी भक्त का वह बेचैनी से देखना सार्थक भी हो जाता। उस कर्मयोग में डूबी ब्रह्मचारिणी की सौम्य मुखश्री से शान्त शीतल ज्योति झिलमिलाकर क्षण भर में मेरे मन की सारी बेचैनी दूर कर देती थी।
किन्तु उस दिन सहसा मैंने यह क्या देखा! मेरे चन्द्रलोक में क्या अब भी ज्वालामुखी जाग रहा है, वहाँ की सुनसान समाधि में डूबी पहाड़ी गुफा सा सारा अग्निदाह क्या अभी तरह पूरी तरह बुझा नहीं है?
उस दिन वैशाख के तिपहर को पूर्वोतर दिशा में बादल घिर रहे थे। उस घिरी हुई आंधी की बादलों-भरी तेज चमक में मेरी पड़ोसन खिड़की के पास अकेली खड़ी थी। उस दिन उसकी शून्य डूबी घनी काली आँखों में मैंने दूर तक फैली हुई एक कसक देखी।
तो, मेरे उस चन्द्रलोक में अब भी ताप है। अब भी वहाँ गर्म सांसो की हवा बहती है। वह देवताओं के लिए नहीं, मनुष्य के लिए ही है।
उस दिन उस आंधी के प्रकाश में उसकी दोनो आँखों की तेज छटपटाहट उतावले पक्षी की तरह उड़ी चली जा रही थी, स्वर्ग की ओर नहीं, मानव-ह्रदय के घोसले की ओर।
उत्सुक आकांक्षा से चमकती उस दृष्टि को देखने के बाद मेरे लिए अपने बेचैन मन को काबू करना मुश्किल हो गया। तब केवल दूसरे की कच्ची अनगढ़ कविताओं के संसोधन से मन नहीं भरा, मेरे अंदर भी किसी प्रकार का काम करने की चंचलता पैदा हो गई। तब मैंने यह निश्चय कर लिया कि बंगाल में भी विधवा-विवाह प्रचलित करने के लिए मैं अपनी सारी चेष्टा का प्रयोग करूंगा। केवल व्याखायान और लेख लिखकर नहीं, आर्थिक सहायता देने के लिए भी मैं आगे बढ़ा।
नवीन मेरे साथ बहस करने लगा। उसने कहा, ”चिर वैधव्य में एक पवित्र शांति है, एकादशी की धुंधली चांदनी से प्रकाशित समाधि, भूमि की तरह उसमें एक महान सौंदर्य है। क्या वह विवाह की संभावना मात्र से नष्ट नहीं हो जाएगा?”
ऐसे कवित्व की बातें सुनते ही मुझे गुस्सा आ जाता है। अकाल में खाने के अभाव में जो व्यक्ति घुल-घुलकर मर रहा हो, उसके पास हट्टा-कट्टा कोई व्यक्ति आकर यदि भोजन की भौतिकता के प्रति घृणा प्रकट करते हुए फूल की सुगंध और पक्षियों के गीत से मरते हुए का पेट भरना चाहे, तो वह कैसा लगता है?
मैंने गुस्से में आकर कहा, ”सुनो नवीन, कलाकार कहते हैं कि खंडहर का भी एक सौंदर्य होता है, लेकिन किसी घर को सिर्फ चित्र के रूप में देखने से ही काम नहीं चलता चूंकि उस घर में रहना पड़ता है। कलाकार कुछ भी कहता रहे, उस घर की मरम्मत जरूरी है। वैधव्य के बारे में, दूर बैठकर तुम चाहे कितनी कवितायें लिखना चाहो, किन्तु यह तुम्हें याद रखना चाहिए कि उसमें आकांक्षाओं से भरा एक मानव-ह्रदय अपनी विचत्र वेदना के साथ वास करता है।”
मेरा ख़याल था कि नवीन को मैं किसी भी तरह अपने दल में नहीं खींच सकूंगा, इसीलिए मैं उस दिन ज्यादा गर्मी से बातें कर रहा था, लेकिन सहसा मैंने देखा कि मेरे भाषण के अंत में उसने एक गहरी सांस ली और मेरी सारी बातें मान लीं। मुझे और भी बहुत-सी अच्छी-अच्छी बातें करनी थीं, पर उसने उसका मौका ही नहीं दिया।
लगभग हफ्ते भर के बाद नवीन ने आकर कहा, “तुम अगर मदद करो, तो मैं खुद विधवा-विवाह करने को तैयार हूँ।”
मेरी समझ में एक बात आ गई कि उसकी प्रियतमा काल्पनिक नहीं है। कुछ अरसे से वह एक विधवा नारी को दूर से प्यार करता रहा है, पर किसी से उसने यह प्रकट नहीं किया। जिस मासिक पत्र में नवीन की, उर्फ मेरी कवितायें प्रकाशित होती थीं, वे पत्रिकायें ठीक जगह पर पहुँच जाया करती थीं।
वे कवितायें व्यर्थ नहीं गईं। बिना मेल-मुलाकात के ही ह्रदय आकर्षित करने का यह उपाय मेरे मित्र ने ढूंढ़ निकाला था।
लेकिन नवीन का कहना है कि उसने कोई षडयंत्र कर ऐसी तरकीब निकाली हो, सो बात नहीं। यहाँ तक कि उसका खयाल था कि वह विधवा पढ़ना भी नहीं जानती थी। मासिक पत्रिका बिना मूल्य विधवा के भाई के मांग पर भिजवा देता था। वह केवल मन को तसल्ली-भर देने का पागलपन था। उसे ऐसा लगता था कि देवता के लिए पुष्पांजलि चढ़ाई जा रही है। वे जानें या न जानें, स्वीकार करें या न स्वीकार करें।
कई बहानों के जरिये विधवा के भाई से नवीन ने मित्रता कर ली थी। नवीन का कहना है कि इसमें भी उसका कोई उद्देश्य न था। जिससे प्रेम किया जाए, उसके निकट-संबंधियों का संग भी मधुर लगता है।
अंत में भाई सख्त बीमार पड़ा, तो इस सिलसिले में बहिन के साथ उसकी भेंट कैसे हुई, वह एक लंबी कथा है। कवि के साथ कविता में वर्णित विषय का प्रत्यक्ष परिचय हो जाने के बाद कविता के संबंध में दोनों में बड़ी चर्चा हो चुकी थी और यह चर्चा छपी कविताओं में ही सीमित थी, ऐसा नहीं कहा जा सकता।
`हाल में मुझसे बहस में हारकर नवीन ने उस विधवा से मिलकर विवाह का प्रस्ताव किया। पहले-पहल उसे किसी प्रकार स्वीकृति न मिली। तब नवीन ने मेरी सारी युक्तियों का प्रयोग कर और उनके साथ अपनी आँखों के दो-चार बूंद आँसू मिलाकर उसे संपूर्ण रूप से हरा दिया। अब सब कुछ तय है, केवल विधवा के अभिभावक यानी उसके फूफा कुछ रूपया चाहते हैं।
मैंने कहा, ”अभी लो।”
नवीन बोला, ”इसके अलावा एक बात और है। शादी के बाद पिता जी पांच-छ: महीने तक ज़रूर खर्चा देना बंदकर देंगे और तब तक दोनों का खर्च निभाने के लिए तुम्हें इंतज़ाम करना होगा।” मैंने मुँह से कुछ न कहकर एक चेक काट दिया और कहा, ”अब उसका नाम बताओ। मेरे साथ जब तुम्हारी कोई प्रतियोगिता नहीं, तो परिचय देने में तुम्हें किस बात का डर है? मैं तूम्हें छूकर सौगंध खाता हूँ कि उनके नाम कोई कविता नहीं लिखूंगा और अगर लिखूं भी, तो उनके भाई के पास न भेजकर तुम्हारे पास भेज दिया करूंगा।”
नवीन ने कहा, “अरे इसके लिए मुझे कोई डर नहीं। विधवा-विवाह की लाज से वह गड़ी जा रही है, इसलिए उसने तुम लोगों से इस बारे में कोई चर्चा करने को बार-बार मना कर दिया है, पर अब छिपाना बेकार है। वह तुम्हारी ही पड़ोसिन है, उन्नीस नंबर में रहती है।”
अगर मेरा ह्रदयपिंड लोहे का बायलर होता, तो उसी क्षण भक-से फट जाता, मैंनेू पूछा, ”विधवा-विवाह से उसे कोई एतराज नहीं है?”
नवीन ने हँसकर कहा, ”फिलहाल तो कोई एतराज नहीं है।”
मैंने पूछा, ”सिर्फ कवितायें पढ़कर ही वह मुग्ध हो गई?”
नवीन ने कहा, ”क्यों मेरी वे कवितायें कुछ बुरी तो थी नहीं?”
मैंने मन-ही-मन कहा, ‘धिक्कार है!’
धिक्कार किसे? उन्हें, या मुझे या विधाता को, लेकिन धिक्कार है!
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