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पढ़ने का अलग ढंग

मुकेश ‘नादान’

यह कथा उस समय की है जब नरेंद्रनाथ विद्यालय के लिए पाठशाला में भरती हुए थे। पाठशाला जाने के पहले दत्त-वंश के कुल पुरोहित ने आकर रामखड़ी (लाल रंग की खिल्ली) का चित्र बनाकर नरेंद्र को सिखाया-यह “क' है, यह “ख' है। नरेंद्र ने भी कहा, यह 'क' है, यह “ख' है। इसके बाद धोती पहनकर सरकंडे की कलम लेकर वे पाठशाला गए। किंतु विद्यालय तो एक अपूर्व स्थान होता है। वहाँ अनचाहे, अनजाने, विभिन्‍न सामाजिक स्तरों के कितने ही लड़के इकट्ठे होते हैं। उनकी बातचीत, बोल-चाल भी सब नए ढंग के होते हैं। इसके फलस्वरूप दो-चार दिनों के भीतर ही शब्दकोश से बाहर के कई शब्दों को नरेंद्र ने सीख लिया।
जब उनके माता-पिता को इसका पता चला तो उन्होंने नरेंद्र को उस विद्यालय में रखना उचित नहीं समझा। उन्होंने घर पर ही अपने पूजाघर में एक छोटी सी पाठशाला खोलकर वहाँ गुरुजी के हाथों अपने पुत्र को समर्पित कर दिया। बाहर की पाठशाला में नए संगियों को पाकर नरेंद्र को जो आनंद प्राप्त हुआ था, उसकी कमी भी यहाँ बहुत कुछ पूरी हो गई; क्योंकि इस नई पाठशाला में कई आत्मीय लड़के भी आ गए थे। नरेंद्र ने तब छठे वर्ष में प्रवेश किया था। इस तरह विद्यालय की शिक्षा शुरू होने पर भी माँ के निकट नरेंद्र जो ज्ञान प्राप्त कर रहे थे, वह बंद नहीं हुआ और पुस्तकीय विद्या के हिसाब से बँगला वर्ण परिचय सरकार की अँगरेजी फर्स्ट बुक को उन्होंने माँ से ही पढ़ लिया था।
नरेंद्रनाथ के पढ़ने का एक अपना ही ढंग था। अध्यापक महोदय बगल में बैठकर नित्य पाठ पढ़ा जाते और नरेंद्र आँखें मूँदकर सोए-सोए उसे सुनते। इतने से ही उनको दैनिक पाठ याद हो जाता।
श्रीरामकृष्ण के भक्त भी रामचंद्र दत्त के पिता नूसिंह दत्त उन दिनों अपने पुत्र के साथ नरेंद्र के घर पर ही रहते थे। रात में नरेंद्र नुसिंह दत्त के साथ ही सोया करते। वृद्ध दत्त महोदय को थोड़ा संस्कृत का ज्ञान था। उनकी धारणा थी कि कठिन विषयों को बचपन से सिखाने से लड़के उन्हें आसानी से याद रख सकते हैं। इस धारणा के कारण वे रात में नरेंद्र को अपने समीप रहने के सुयोग से पुरखों की नामावली, देवी-देवताओं के नाम और मुग्धबोध व्याकरण के सूत्रों को मौखिक रूप से उन्हें सिखाया करते थे। अपनी माता, आत्मीय जन और गुरु महोदय की कृपा से इस प्रकार बैँगला भाषा और संस्कृत में नरेंद्र ने अल्प आयु में ही पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर लिया।
सन्‌ 1871 में, जब वे आठ वर्ष के थे, विद्यासागर महाशय के मेट्रोपोलिटन इंस्टीट्यूशन की तत्कालीन नौवीं कक्षा में उनका नामांकन करवा दिया गया। विद्यालय उन दिनों सुकिया-स्ट्रीट में था। वहाँ इन दिनों लाहा का घर हो गया है। विद्यालय के सभी शिक्षकगण उनकी बुद्धिमत्ता से उनकी ओर आकृष्ट हुए। किंतु एक कठिन समस्या उत्पन्न हो गई। अँगरेजी भाषा सीखने के प्रति उन्होंने तीव्र अनिच्छा प्रकट की। सभी लोगों ने बहुत समझाया, “आजकल अँगरेजी शिक्षा पाना आवश्यक है। नहीं सीखने से काम नहीं चलता।” तथापि नरेंद्र की प्रतिज्ञा नहीं 'टली। वृद्ध नृसिंह दत्त महाशय ने भी समझाया, किंतु सफल नहीं हुए।
इस तरह कुछ समय बीत जाने पर नरेंद्र ने न जाने क्या सोचकर दत्त महाशय की बात मान ली। इस नई इच्छा के साथ-साथ वे इस प्रकार नए उत्साह से यह भाषा सीखने लगे कि सभी देखकर अवाव्क्त हो गए। इतिहास और संस्कृत भाषा भी उन्होंने सीखी थी, किंतु अंकगणित के प्रति वे विरु थे।
प्रवेशिका श्रेणी में अध्ययन काल में यद्यपि उन्हें कड़ा परिश्रम करना पड़ता था तथापि वे केवल किताबी कीड़ा नहीं बनना चाहते थे। वे रटंत विद्या में विश्वास नहीं करते थे। निश्चय ही इसके चलते परीक्षाफल में उन्हें हानि भी 'उठानी पड़ी थी। उनके मनोनुकूल विषयों को अधिक समय मिलता। लेकिन अन्य विषयों में उस प्रकार अधिकार नहीं हो पाता था। उन्हें साहित्य पसंद था। इतिहास में उनकी विशेष रुचि थी। इसीलिए मार्शमैन, एलफिंस्टन आदि विद्वानों की भारत के इतिहास की पुस्तकें उन्होंने पढ़ डालीं। अँगरेजी और बँगला साहित्य की कई अच्छी-अच्छी पुस्तकों का उन्होंने अध्ययन किया था। किंतु गणित की ओर वे भली-भाँति ध्यान नहीं देते थे। एक बार उन्होंने कहा था, “प्रवेशिका परीक्षा के मात्र दो-तीन दिन पहले देखा कि रेखागणित को तो कुछ पढ़ा ही नहीं। तब सारी रात जागकर पढ़ने लगे और चौबीस घंटों में रेखागणित की चार पुस्तकों को 'पढ़कर अधिकृत कर लिया।”
इन्ही दिनों उन्होंने पुस्तक पढ़ने की एक नई रीति की खोज की। बाद में उन्होंने बताया था, “ऐसा अभ्यास हो गया था कि किसी लेखक की पुस्तक को पंक्तिबद्ध नहीं पढ़ने पर भी मैं उसे समझ लेता था। हर अनुच्छेद (पैराग्राफ) की प्रथम और अंतिम पंक्तियाँ पढ़कर ही उसका भाव ग्रहण कर लेता। यह शक्ति जब और बढ़ गई, तब अनुच्छेद (पैराग्राफ) पढ़ने की भी जरूरत नहीं पड़ती थी। हर पृष्ठ की प्रथम और अंतिम पंक्तियाँ पढ़कर ही समझ लेता। फिर जहाँ किसी विषय को समझाने के लिए लेखकों ने चार-पाँच या इससे अधिक पृष्ठ लगाकर विवेचन करना शुरू किया होता, वहाँ आरंभ की कुछ बातों को पढ़कर ही मैं उसे समझ लेता था।”

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