रीटा मक्कड़
दिसम्बर के महीने का आखिरी सप्ताह चल रहा है। सर्दी इन दिनों खूब जोरों की पड़ रही है। रात को धुंध इतनी ज्यादा हो जाती है कि सामने वाला घर भी दिखाई नही देता। ऐसे में जब सब लोग रजाईयों में दुबके पड़े हैं या फिर हीटर चला कर अपने कमरे गर्म करने का प्रयास कर रहे हैं। इस समय रात के करीब ग्यारह बजे होंगे। सुनीता भी किचन समेट के बस अभी रजाई में लेटने ही जा रही थी कि अचानक से किसी के जोर-जोर से रोने की आवाज़ सुनाई दी। ऐसी सुनसान रात में आवाज़ सुन के ही सुनीता दहशत में आ गयी। पति राजीव को देखा तो वो भी अभी पूरी तरह सोए नही थे शायद।
"देखता हूं कौन रो रहा है" बोल कर वो उठ ही रहे थे कि किसी ने बाहर की घण्टी जोर-जोर से आठ दस बार बजा दी। राजीव जल्दी से बाहर को भागे। सुनीता भी पीछे-पीछे चल दी। बाहर जा कर देखा तो गेट पर एक औरत खड़ी थी और बहुत ज्यादा रो रही थी और मदद की भीख माँग रही थी।
ध्यान से देखने पर सुनीता को याद आया कि ये तो वही औरत है जो सामने बन रही बिल्डिंग में एक तरफ बनी झोंपड़ी में पिछले कई महीनों से रह रही है। वो बोल रही थी कि उसके घरवाले ने किसी बात पर उसकी खूब पिटाई कर दी और उसे झोंपड़ी से बाहर निकाल दिया था। राजीव ने किसी तरह उसके पति को डांट कर समझा कर उस औरत को झोंपड़ी के अंदर भेजा। तब दोनों वापिस अपने घर आये।
दोबारा सोने की बहुत कोशिश की लेकिन आंखों में अब नींद का नामो निशान नही था। उस औरत की शक्ल आंखों से हट ही नही रही थी। तीन छोटे-छोटे बच्चों के साथ उस छोटी सी झोंपड़ी में गिनती के दो चार बर्तनों और दो चार कपड़ों के साथ कैसे गुजारा करती होगी।
बच्चों ने भी कभी किसी ने चप्पल नही पहनी होती तो किसी की जुराबें नही होती। अगर किसी ने टोपी पहनी होती तो उसकी पजामी गायब होती। शायद भगवान गरीब के बच्चों को हर मौसम की मार को सहने की शक्ति दे कर ही भेजता है।
उस औरत को भी आते जाते जब भी देखा हंसते मुस्कुराते अपने बच्चों के साथ खेलते और घर का काम करते देखा। माथे पर शिकन तक कभी नही दिखी उसके।
अभी करवा चौथ पर भी तो देखा था उसे जब बड़े-बड़े घरों और माल के चक्कर में चांद नही दिखता तो बहुत सी औरतें सड़क पर या बालकनी में जहां से भी चांद दिखाई दे वहीं पूजा कर लेती हैं। तभी अपनी बालकनी से ही सुनीता ने उसको भी देखा था। लाल साड़ी में और लंबा से चटक लाल सिंदुर, बड़ी सी बिंदिया और कांच की बहुत सारी चूड़ियां पहने हुए। जब वो भी चांद को अर्घ देकर अपने पति की आरती उतार रही थी।
यही बातें सोचते सोचते कब सुनीता की नींद लग गयी पता ही नही चला। सुबह जब उठी तो काफी देर हो गयी थी। आज लग रहा था बाहर खूब खिली-खिली धूप निकली हुई है। रात की बर्फीली ठंड के बाद सुबह की धूप बेहद सुकून देती है। किचन के काम निपटा कर धूप में बैठने जब बालकनी में आई तो उत्सुकता वश खुद ब खुद ही नज़र सामने बन रही बिल्डिंग की तरफ उठ गई। देखा तो वही औरत नहा के गीले बालों में खूब बड़ा सा चटक लाल रंग का सिंदूर और बड़ी सी बिंदी लगा कर पुरानी मटमैली सी साड़ी पहने हुए बाहर धूप में अपने बच्चों के कपड़े सूखा रही थी और साथ में शायद कुछ गुनगुना भी रही थी जिसकी आवाज़ तो दूरी की वजह से सुनीता को सुनाई नही दी लेकिन होंठ हिलते हुए साफ दिखाई दे रहे थे।
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