top of page

पहला कदम

डॉ. कृष्णा कांत श्रीवास्तव

"माँ, क्या आप कभी डेट पर गए हो?”, सुमित का प्रश्न सुन कविता चौंक गई। "डेट?” उसके जमाने में ये सब बातें कहाँ होती थीं। छोटा शहर, जहाँ हर कोई एक दूसरे की जन्मकुंडली तक से परिचित था। कोई बात किसी से छुपती नहीं थी। फिर बाबूजी का कठोर अनुशासन, कभी हिम्मत ही नहीं हुई कि इस विषय पर कुछ सोचे भी, दोस्ती करना व डेट पर जाना तो दूर की बात थी।
उसे एक क़िस्सा अभी भी याद है। शायद बीएससी के सेकंड ईयर में थी। को-एड कॉलेज था। शहर के महिला कॉलेज में विज्ञान के विषय नहीं थे, इसीलिए यहाँ पढ़ने की अनुमति मिली थी। बाबूजी के सख़्त निर्देशों के साथ।
कक्षा में दिवाकर नाम का एक लड़का था। उसने कई बार उसकी नज़रों को खुद पर महसूस किया था, पर कभी बातचीत नहीं हुई। दिवाकर को पता नहीं कैसे ज्ञात हुआ, उसने, उसके जन्मदिन पर, एक महँगा-सा कलम लाकर "हैपी बर्थडे” कहते हुए उसके सामने डेस्क पर रख दिया।
उन दिनों किसी लड़के द्वारा तोहफ़ा देना कोई मामूली बात नहीं होती थी। उसका दिल ज़ोर से धक-धक करने लगा पर उस नीले-सुनहरे पेन को उठाने या छूने की हिम्मत नहीं हुई उसे। वह अपना बैग उठाकर दूसरी जगह बैठ गई। उनके बीच जो कुछ भी अजन्मा-सा रिश्ता था, वह उसी दिन दफ़न भी हो गया, पर उसे आज भी एक-एक बात याद है। शायद मन के किसी कोने में….
"कोई बात नहीं माँ, इतना सोचने की ज़रूरत नहीं है। आप तैयार हो जाइए हम डेट पर चल रहे हैं।” "पागल है क्या, कोई माँ के साथ भी डेट पर जाता है भला?”
"क्यों? क्या गर्ल फ़्रेंड के साथ ही जाते हैं?” हँसने लगा सुमित। "मैं तो आपके साथ ही जाऊँगा। सुंदर-सी साड़ी पहन के तैयार हो जाइए, आख़िर ये आपका पहला डेट है।”
बेटे के ज़िद के आगे उसने हथियार डाल दिए। तैयार होकर निकली तो उछल पड़ा, "वाउ माँ, आज तो सबकी नज़रें आप पर ही होगीं।”
"चल हट, पिटना है क्या?” उसने हँसते हुए एक धौल जमा दी उसके पीठ पर।
मानो बेटे ने उसे ज़िंदगी की सबसे हसीन शाम तोहफ़े में दे दी हो। सबसे पहले उसे कपड़ों की दुकान पर ले गया।
"शॉर्टलिस्ट करते है माँ। आप पहले पाँच आउट्फ़िट्स छाँट लो फिर फ़ाइनल करेंगे।”
पर उसे अंतिम पाँच में से एक पसंद नहीं करने दिया सुमित ने… पाँचो ले लिए। पहली बार जीवन में उसके लिए इतने कपड़े ख़रीदे गए थे।
फिर वे एक मूवी देखने गए, उसके फ़ेवरेट हिरोइन की। वहाँ से निकले तो एक महँगे रेस्टोरेंट में डिनर करने चले गए। "बताओ माँ क्या खाना है?”
"तेरा जो जी चाहे ऑर्डर कर दे, मुझे तो सब पसंद है।” "अच्छा। तभी उस दिन फ़ोन पर मौसी से कह रही थी कि बरसों से पनीर टिक्का नहीं खाया क्योंकि सुमित के पापा को पनीर से ऐलर्जी है?”
"हाँ तो है ना। उनका पेट….”
"आपको तो नहीं है न? मगर आप कभी भी अपनी पसंद ज़ाहिर नहीं करती। आज ऑर्डर आप ही करेंगी। सब कुछ अपनी पसंद का।”
"बचपन से देखा है माँ, मेरी पसंद, पापा की, दादी की पसंद को ही आपने अपनी पसंद बना ली है। कपड़े भी पापा के पसंद के ही लेती हो। घर की साज-सज्जा दादी के इच्छा अनुसार ही होता है। आपकी पसंद की अहमियत क्यों नहीं माँ? क्या आपको लगता है कि आप कुछ करना चाहेंगी तो पापा मना कर देंगे। मगर अपनी स्थिति को बेहतर करने के लिए पहला कदम तो आप ही को उठाना होगा न माँ, वरना सब रौंदते हुए निकल जाएँगे।”

*******

1 view0 comments

Recent Posts

See All

Comments


bottom of page