मुकेश ‘नादान’
समय के साथ-साथ सब कुछ ठीक ही चल रहा था कि अचानक एक दिन हृदयाघात के कारण नरेंद्र के पिता का देहांत हो गया।
नरेंद्र के पिता की मृत्यु मानो परिवार के लिए अभिशाप सिद्ध हुई। पूरे परिवार पर जैसे मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा।
विश्वनाथजी का हाथ बहुत खुला था, जो कमाते, खर्च कर देते थे। उन पर कुछ कर्जा भी हो गया था। उनकी मृत्यु का समाचार सुनते ही कर्ज देने वाले आ धमके। बड़ी मुश्किल से उन्हें समझाया गया और कर्ज चुकाने के लिए अग्रिम समय ले लिया, किंतु अब सबसे बड़ी समस्या थी, परिवार के भरण-पोषण की। नरेंद्र के परिवार में छह-सात सदस्य थे। बेटों में सबसे बड़े होने के कारण उन पर सारी जिम्मेदारियों का बोझ आ गया था।
'पहली बार नरेंद्र को एहसास हुआ कि दरिद्रता क्या होती है। पिता के जीवनकाल में उन्होंने ऐशो-आराम की भले ही कामना नहीं की थी, किंतु उन्हें किसी बात की चिंता भी तो नहीं थी। अब उनके लिए भोजन का प्रंध करना भी एक बड़ी समस्या बन गई थी।
संकट की इस घड़ी में उनके सभी मित्रों ने किनारा कर लिया था। उन्हें कई दिनों तक भूखे-प्यासे रहना पड़ता था। नौकरी की तलाश में पूरे दिन नंगे पैर भटकते रहते थे। उन दुखपूर्ण दिनों के विषय में स्वयं नरेंद्र ने सविस्तार वर्णन किया है!
“भूख से बुरा हाल था। एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर नंगे पैर भाग-दौड़ करता, मगर सब तरफ घृणा के अलाबा कुछ नहीं मिला। उन दिनों मानव की सहानुभूति का अनुभव पाया। जीवन की वास्तविकताओं के साथ यह मेरा प्रथम परिचय था। मैंने देखा-संसार में कमजोर-निर्धन तथा परित्यक्तों के लिए कोई जगह नहीं है। वे लोग, जो कुछ ही दिन पहले मेरी सहायता करने में गर्व अनुभव करते थे, उन्होंने सहायता करने की सामर्थ्य होते हुए भी मुँह मोड़ लिया। यह संसार मुझे शैतान की सृष्टि दिखाई देने लगा। एक दिन तपती दोपहर को जब मुझसे अपने पैरों पर खड़ा नहीं हुआ गया तो मैं एक स्मारक की छाया में बैठ गया। वहाँ पर मेरे कई मित्र भी बैठे थे, उनमें से एक मित्र ईश्वर का गुणगान करने लगा। वह गीत मुझे खुद पर गहरा प्रहार सा लगा। अपने भाइयों तथा माता की असहाय अवस्था का ध्यान आते ही मैं चीख पड़ा, “बंद करो यह गीत! जो धनवानों के घर पैदा हुए हैं और जिनके माँ-बाप भूखे नहीं मर रहे, उन्हें तुम्हारा गीत प्रिय लगेगा। कभी मैं भी ऐसा ही सोचता था। मगर आज मैं जीवन की कठोरताओं का सामना कर रहा हूँ। यह गीत मेरे दुखभय जीवन पर उपहासकारी चोट कर रहा है।'
“कई बार मैंने देखा कि घर पर खाने के लिए पर्याप्त भोजन नहीं होता था। ऐसे समय में मैं माँ से झुठ ही कह देता कि मुझे मेरे मित्र ने भोजन पर आमंत्रित किया है और मैं भूखा रह जाता था। हालाँकि मेरे धनी मित्र मुझे अपने घर खाने के लिए आमंत्रित करते थे, मगर उनमें से किसी ने भी मेरे दुर्भाग्य-काल में मेरा सहयोग नहीं किया। मैंने भी अपनी अवस्था का जिक्र किसी से नहीं किया।”
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