पिया के देश जाना है
सुभग श्रृंगार तन मंडित,
सजा है वेणु अलकों में।
छिपी एक स्वप्न की दुनिया,
सिसकती भीगी पलकों में।
हथेली नाम प्रियतम का,
अलक्तक संग सजे नूपुर।
निखरती माँग मणिराजी,
बजे संगीत मध्यम सुर।
विदा ले जन्म-दाता से,
यह आँगन छोड़ जाना है।
पिया के देश जाना है।
पिया के देश जाना है।
माँ आँचल नेह का निर्झर,
छिपा है क्षीरनिधि पावन।
किया पयपान अमृत सा,
हुआ पोषित यह तन जीवन।
सजाया रूप परियों सा,
सँवारी मन की कोमलता।
दी शिक्षा मान, गौरव की ,
सिखाई कुल की पावनता।
परिष्कृत कर दिया जीवन,
हुआ निजता का अवबोधन।
बताया धर्म-संस्कृति भी,
सिखाया ईश आराधन।
हुई अभिसिक्त जिस आँचल,
वो आँचल छोड़ जाना है।
पिया के देश जाना है।
पिया के देश जाना है।
पकड़ उँगली चलाया है,
रहे बनकर सदा संबल।
पिता प्रतिबिंब हर क्षण का,
किया है पुष्ट आत्मबल।
दिया संसार का परिचय,
व सम्बंधों की गरिमा का।
हो उन्नत भाल पौरुष से,
हो यश स्त्रीत्व महिमा का।
नयन है प्रेम से पूरित,
मगर कर्तव्य आभासित।
दिखे हैं कर्मयोगी से,
करें जीवन को परिभाषित।
मिली जहाँ ज्ञान की दीक्षा,
वो साधन छोड़ जाना है।
पिया के देश जाना है।
पिया के देश जाना है।
मिला जो माँ से बाबा से,
वो निधियाँ ले के आई हूँ।
सफल सम्मानमय जीवन की,
विधियाँ साथ लायी हूँ।
न तोलो उस तुला से,
अर्थ से बस अर्थ ही तोले।
जो शिक्षा, ज्ञान, गौरव, मान,
को बस व्यर्थ ही बोले।
करो मत मान मर्दन है
पिता की आत्म का टुकड़ा।
न घायल तन करो, बरसों
सँवारा माँ ने यह मुखड़ा।
सहेजो घर की लक्ष्मी को,
वही है मूल धन घर का।
मिटा दो मन की निर्ममता,
न समिधा अब करो तन का।
भटकते किसलिए दर-दर,
यहीं सब छोड़ जाना है।
पिया के देश जाना है।
पिया के देश जाना है।
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