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प्रतिदान

निर्मला

निक्की की शादी पक्की हो गई, यह ख़बर मिलते ही गरिमा के हृदय में जैसे मनहूसियत सी छा गई। अब तो ३० वर्ष से भी अधिक की हो गई होगी निक्की की उम्र। भैया-भाभी के लाख प्रयास के बाद भी निक्की के लिए सुयोग्य वर नहीं मिल पा रहा था। एक ओर जहां शादी में ज़्यादा ख़र्च न कर पाने की असमर्थता रहती, वहीं दूसरी तरफ़ सुयोग्य वर मिलना भी कठिन होता। और अब जबकि शादी तय हो गई है, तो गरिमा की परिस्थिति ऐसी है कि ख़ुशी की जगह उसके हृदय में शंका और डर सा समा रहा है। गरिमा निक्की की बुआ है। खाली हाथ शादी में गई तो क्या ख़ुशी-ख़ुशी शादी में शामिल हो पाएगी? उसे अंदर-ही-अंदर अपमान की व्यथा नहीं झेलनी पड़ेगी? और यदि आशुतोष से निक्की के लिए एक अच्छे तोहफ़े की मांग की तो क्या आशुतोष का बेबस चेहरा उसके हृदय को तार-तार नहीं कर देगा? निरीहता से भर उठी है गरिमा। भैया गरीब हैं, ज़रूरतमंद हैं, पर आत्मसम्मानी भैया को निःसंदेह गरिमा से कोई आकांक्षा नहीं होगी।
लेकिन भाभी को अपनी बेटी के लिए गरिमा से कम-से-कम एक सोने की अंगूठी की आस तो होगी ही। भैया-भाभी की गोद में ही तो पली-बढ़ी है गरिमा। पिता की असमय मौत ने उसकी मां को मानसिक रोगी बना दिया, तब भैया-भाभी ने ही उसे स्नेहिल संरक्षण दिया, भैया के गले में बांहें डालकर, लाड़ दिखाकर उसने कई खिलौने, कपड़े व तोहफ़े पाए हैं। भैया के साथ बिताया गया हर पल गरिमा के लिए अविस्मरणीय है। बच्चों के लिए लाई गई मिठाइयों में से एक मिठाई का टुकड़ा गरिमा के मुंह में ठूंसकर दायित्व निर्वाह करती भाभी के एहसान से तो कदाचित उन्हें सोने-चांदी से तौलकर भी उऋण नहीं हो सकती गरिमा। जाने कितनी बार गरिमा ने भाभी को बगैर सब्ज़ी के दाल रोटी गटकते देखा है। लेकिन गरिमा की थाली में सब्ज़ी की कमी कभी नहीं हुई। गरिमा ने आशुतोष को भैया-भाभी की हर बात बताई है। आशुतोष को भी निक्की की शादी में एक अच्छी-खासी रकम ख़र्च करने से ऐतराज नहीं होगा। लेकिन पैसे बचते कहां हैं, जो ख़र्च किए जाएं। आशुतोष की मजबूरी को जानती है गरिमा, इसीलिए चुप रहती है। आशुतोष भी कदाचित अपनी विवशता के कारण ही चुप था। अपने भीतर चल रहे द्वंद्व से लड़ रहा था।
पहले गरिमा भी नौकरी करती थी, वह शिक्षिका थी, लेकिन ब्याह होते ही आशुतोष ने उसे नौकरी पर जाने से मना कर दिया, “देखो गरिमा, मां बहुत कमज़ोर हो गई हैं। बाबूजी के देहांत के बाद इन्होंने बड़ी तकलीफ़ से मुझे और निशा को पाला है। तुम नौकरी करने जाओगी, तो फिर से मां को रसोई में जुट जाना पड़ेगा।" "पूरे दिन के लिए आया रख लेंगे।" गरिमा ने सुझाव दिया। "आया का ख़र्च भी कम नहीं होता गरिमा, चोरी-चपाटी अलग होती रहेगी। तुम्हें इतना वेतन नहीं मिलता कि तुम नौकरी करके कुछ बचा सको। फिर क्या फ़ायदा ऐसी नौकरी का? तुम घर पर ही रहो। मां का ख्याल रखो। मुझे नौकरी करने दो।
मैं तुम्हें कोई तकलीफ़ नहीं होने दूंगा।" स्नेह से गरिमा के गालों को हथेली पर रखते हुए, निर्णयात्मक लहजे में आशुतोष ने फ़ैसला सुनाया तो गरिमा को झुकना ही पड़ा। मां के प्रति आशुतोष का स्नेह भाव देखकर पहले-पहल गरिमा गौरवान्वित हो उठती थी कि वह एक मातृभक्त पुरुष की पत्नी है। आशुतोष का सदैव मां के प्रति चिंतित रहना गरिमा को बेहद भला लगा करता था। हर माह वेतन मिलने के बाद आशुतोष सारा वेतन मां के हाथ पर धर दिया करता था। यह भैया-भाभी द्वारा दी गई शिक्षा का ही परिणाम था कि गरिमा यह सब देखकर भी कभी अपनी सास से ईर्ष्या नहीं कर पाई। लेकिन जल्दी ही आशुतोष का मातृप्रेम गरिमा को खटकने लगा। यदि प्रेम और विश्वास दोनों पक्ष बराबर हों, तो सब कुछ सुखद भी लगता है, अन्यथा विपरीत परिस्थितियों में भला कौन सुखी रहा है। आशुतोष को अपनी मां पर अपार विश्वास था। इसीलिए उसने कभी मां से अपने दिए पैसे का हिसाब नहीं पूछा। लेकिन गरिमा जानती थी कि मां पैसे बचाती है। कई बार गरिमा ने उन्हें निशा को पैसे देते देखा भी था। गरिमा सोच-सोचकर व्याकुल हो उठती। यदि निशा को पैसे की जरूरत है तो उसकी मदद ज़रूर की जानी चाहिए, पर आशुतोष को इसकी जानकारी देनी भी तो आवश्यक है। आशुतोष को अंधेरे में रखकर मां द्वारा किया जा रहा कृत्य गरिमा को तनावग्रस्त कर जाता। उसे लगता जैसे आशुतोष की क़द्र इस घर में सिर्फ़ एक पैसे कमानेवाली मशीन के रूप में है। न तो उसे किसी का निःस्वार्थ प्यार मिलता है, न ही विश्वास।
मां के इस व्यवहार के बाद आशुतोष के प्रति गरिमा का स्नेह दुगुना हो गया, क्योंकि वे जानती है कि आशुतोष का उसके अलावा कोई नहीं। घर की परिस्थिति मां से छिपी हुई नहीं थी, लेकिन तब भी वे बजाय इस घर में कुछ ख़र्च करने के चुपके से अपनी बेटी को पैसे देती रहतीं। गरिमा को कई बार लगता कि उसे मां की शिकायत आशुतोष से कर देनी चाहिए, लेकिन कहीं आशुतोष सच जानने के बाद मां से स्पष्टीकरण न मांग ले और घर का शांत वातावरण दुखद न बन जाए, यही सोचकर वह चुप रह जाती। कई बार पैसों की तंगी के कारण गरिमा को अपनी आकांक्षाओं को अपने ही अंतर में दफ़ना भी देना पड़ता, पर गरिमा की ललक मां को पिघला नहीं पाती। जैसे वे कभी-कभार निशा को पैसे दे देती हैं। वैसे गरिमा को कभी क्यों नहीं दे पातीं? यदि आशुतोष घर ख़र्च के पैसे गरिमा को दिया करता, तो निश्चित ही गरिमा भी अपने लिए थोड़े पैसे हर माह बचा लिया करती। पर फ़िलहाल तो स्थिति ऐसी थी कि जब भी आवश्यकता हो, उसे आशुतोष से ही पैसे मांगने पड़ते। जब से गरिमा ने मां को छिपाकर निशा को पैसे देते हुए देखा था, तब से उसने अपनी आवश्यकता के लिए मां से पैसे मांगना ही छोड़ दिया था। जब भी पैसे की जरूरत होती, वह आशुतोष से ही मांगती। आशुतोष कभी उसे अपने पॉकेट मनी से पैसे निकालकर दे देता, तो कभी मां से लेकर दे देता।
पिछली बार जब होटल दीप्ति में साड़ियों की सेल लगी थी, तब गरिमा की पास-पड़ोस की सभी सखियां सेल से साड़ी ख़रीदने जा रही थीं। उन्होंने गरिमा से भी साथ चलने का सहज आग्रह किया। इस बार गरिमा अपनी आकांक्षा के आगे विवश हो गई पैसे की मांग सुनते ही आशुतोष के चेहरे पर हमेशा की तरह एक बेबसी सी छा गई। उसे गरिमा के लिए मां से पैसे मांगने पड़े। मां ने पैसे तो दिए, पर साथ ही भाषण देने से भी बाज नहीं आई, "बहू, अड़ोस-पड़ोस की औरतों को देखकर तुम्हारा भी साड़ी के लिए ललकना ग़लत तो नहीं, लेकिन साथ में यह देख लेना भी ज़रूरी है कि आशुतोष की कम तनख़्वाह में क्या यह संभव है? और फिर तुम्हारे पास साड़ियां हैं तो। तुम इस बार तो चली जाओ, पर आगे से ध्यान रखना, ज़रूरत हो तभी कुछ ख़रीदना अन्यथा पैसे बर्बाद करने से क्या फ़ायदा? जितनी चादर हो, उतना ही पैर पसारना चाहिए बेटी। आज थोड़ा-बहुत बचाओगी तो कल तुम्हारे ही काम आएगा।" और‌ गरिमा का मन उचाट हो गया। वह सखियों के साथ बेमन से सेल तो देखने गई और एक साधारण सी साड़ी भी ख़रीदी, लेकिन ख़ुशी से नहीं। सखियों का उल्लसित चेहरा देखकर उसे बार-बार अपने आप पर शर्म आती रही, यह सोचकर कि कैसा जीवन है उसका।
मां ने थोड़े से पैसे देते हुए कितनी लंबी-चौड़ी बात सुना दी थी और सब कुछ सुनकर भी ख़ामोश खड़ा रहा था आशुतोष, जैसे उसे मां की हर बात मान्य हो। कभी-कभी गरिमा बड़ा उपेक्षित महसूस करती। यदि उसने नौकरी नहीं छोड़ी होती तो इच्छानुसार अपना जीवन तो जीती, लेकिन अब इन बातों को सोचकर मन मैला करने से क्या फ़ायदा? खैर।।। जो कुछ भी उसके साथ होता है, उसे तो वह सहन कर लेती है। लेकिन फ़िलहाल निक्की का ब्याह सिर पर है। कितनी विषम घड़ी आ गई थी। यदि वह आशुतोष से जरा-सी ज़िद करेगी तो निश्चित ही गरिमा की ख़ुशी के लिए कर्ज़ लेकर इंतजाम कर ही देगा, लेकिन क़र्ज़ लेकर आशुतोष पर बोझ डालना गरिमा को अच्छा नहीं लग रहा था। पर चुप रहना भी तो कोई हल नहीं होगा। आशुतोष से बात तो करनी ही होगी। आशुतोष गरिमा की आकांक्षा जानकर कहीं परेशान न हो जाए, यह सोचकर गरिमा के नेत्र सजल हो उठे। वह तो सदैव यही चाहती थी कि अपनी वजह से आशुतोष को कभी परेशान न होने दे। बेचारा आशुतोष।।। गरिमा के अलावा उसका ख़्याल रखनेवाला और कोई भी तो नहीं। अपनी मां को अपने जीवन में सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्थान देता है वह, पर यह नहीं जानता कि उसकी मां उसे कैसे छल रही है। मां का दिल टटोलने के उद्देश्य से गरिमा ने मन-ही-मन योजना बनाई कि वह मां के साथ ज़रूरत से ज़्यादा नरमी से पेश आएगी और उन्हीं को अपनी समस्या बताएगी। देखते हैं, उनकी प्रतिक्रिया क्या होती है।
वैसे तो मां के अनपेक्षित व्यवहार के बावजूद गरिमा उनसे कभी कठोर नहीं हो पाई थी, पर अब उनके साथ अपेक्षाकृत व अधिक कोमल व्यवहार करने का उसने निर्णय लिया और मौक़ा पाते ही वह अपनी उधेड़बुन से मां को अवगत कराते हुए बोली, "मां, निक्की की शादी में जाना है। समझ में नहीं आता उसे क्या तोहफ़ा दूं। मेरे भैया ने मेरे लिए बहुत कुछ किया है, अतः उनकी बेटी के प्रति मेरा भी तो कोई दायित्व बनता है।" "तुमने आशुतोष से बात नहीं की?" "नहीं मां, पूछने में संकोच हो रहा है। कितनी मुश्किल से घर चल रहा है, उस पर यह शादी।" "हां… वो तो है।" कहते हुए मां गरिमा के पास खिसक आई, "तू ऐसा कर बेटी, आशुतोष से इस समय कुछ भी मत कहना, उसके पास पैसे तो हैं नहीं, वह बेकार परेशान होगा।" "लेकिन, उनसे कहे बगैर।" "तुमसे कहा ना, उससे मत कहना।" अपनी बात में दृढ़ता लाती हुई मां बोली।
उन्हें देखकर लग रहा था, मानो बेटे की परेशानी से व्यथित हों, गरिमा का भी जी चाहा कि वह अपने नाटकीय आवरण को उतार फेंके और कह दे मां से कि अगर बेटे की परेशानी की इतनी ही चिंता है तो बेटे का पैसा चुरा-चुराकर बेटी को देने की क्या ज़रूरत है? ख़ुद जब बेटे के साथ छल करती हैं, तब तो कुछ नहीं लगता और इस वक़्त चेहरे पर ऐसे स्नेह उमड़ा रही हैं, जैसे उन जैसी ममतामयी मां और कोई होगी ही नहीं। छीः गरिमा का हृदय मां के लिए नफ़रत से भर गया, उसने निर्णय लिया कि वह खुलकर इस विषय पर आशुतोष से बात करेगी। यदि गरिमा को कुछ पैसे मिलते रहते तो आज निक्की की शादी के वक़्त यह समस्या नहीं आती। आख़िर… आशुतोष के पैसे पर गरिमा का भी हक़ बनता है। गरिमा का हृदय कुंठाग्रस्त हो चला। जब तक वह अपनी व्यथा को आशुतोष के आगे उड़ेल नहीं देगी, मन शांत नहीं होगा। लेकिन उस रात भी गरिमा आशुतोष से कुछ नहीं कह पाई, कारण आशुतोष देर रात को घर लौटा और कहने लगा कि ओवरटाइम कर रहा था।
गरिमा पसीज गई, थककर चूर हो गया था आशुतोष। गरिमा को आशुतोष के आराम की चिंता होने लगी थी। अब इस वक़्त कुछ भी कहना संभव नहीं था। मां के संबंध में कुछ भी कहकर वह आशुतोष की नींद हराम नहीं कर पाई और चुपचाप अपने तनाव को अपने अंदर ही सहेज लिया उसने। सुबह गरिमा का किसी काम में मन नहीं लग रहा था। पूरी रात कुंठित मन लेकर सो भी नहीं पाई थी वह। सुबह मां ने स्नेहपूर्वक एक-दो वाक्य पूछे थे शायद आशुतोष के देर से आने के बारे में, पर गरिमा उनकी बात अनसुनी कर चुप रही। मां के चेहरे की तरफ़ देखने की भी इच्छा नहीं हो रही थी उसकी। कितनी चालाकी से कह रही थीं कि तोहफ़े के बारे में आशुतोष से न कहूं। वह तो यही सोचती होंगी कि मैं बगैर किसी तोहफ़े के चली जाऊं। व्यथित हृदय से गरिमा ने सोचा। "उहं… मेरा अपमान हो या सम्मान, इन्हें क्या फ़र्क़ पड़ता है, इनके लिए तो बेटी ही सब कुछ है।"
खीझ उठी गरिमा, मुंह फुलाए घर का काम करती रही। मां से उनके छल-कपट का ज़िक्र करते हुए लड़ बैठने की इच्छा हो रही थी उसकी। पर आदतन चुप ही रह गई। आज तक कभी किसी से लड़ने जैसी स्थिति गरिमा के आगे नहीं आई थी। लड़ाई-झगड़े से सदैव दूर भागने की प्रवृत्ति रही है उसकी। अपनी आदत पर उसे क्रोध भी आ रहा था। उल्टा जवाब देने की आदत होती तो प्रतिक्रिया के बाद थोड़ी सी राहत तो मिलती, पर अब तो अंदर-ही-अंदर घुटते रहने के अलावा और कोई चारा नहीं था। आशुतोष रोज़ की तरह ९ बजे ही दफ़्तर के लिए निकल गया था। गरिमा सोच रही थी कि वह धीरे से मां से पूछे कि उनके इस वक्तव्य का भला क्या अर्थ है कि आशुतोष को तोहफ़े के बारे में कुछ न कहना। वह मां से बड़ी सुस्पष्ट बातचीत कर एक निर्णय लेने को मचल उठी। गरिमा को लग रहा था कि वह कब तक मां के अन्याय को सहती रहेगी। एक बार आवाज़ उठाना तो ज़रूरी था, ताकि अगली बार से मां उसके और आशुतोष के ख़िलाफ़ कोई षड्यंत्र न करे। सच… यह सब षड्यंत्र नहीं तो और क्या था। आशुतोष से कुछ कहे बगैर बंदोबस्त कैसे हो सकता है।
ले-देकर आठ रोज़ ही तो शेष रह गए थे निक्की के ब्याह को। गरिमा मन-ही-मन वो भूमिका तैयार करने लगी, जिसका सहारा लेकर उसे मां से स्पष्टीकरण मांगना था। स्वयं को तैयार कर गरिमा जैसे ही मां के कमरे की तरफ़ बढ़ी, देखा मां तैयार होकर बाहर निकल रही हैं। "मैं जरा निशा के पास जाकर आती हूं।" मां ने कहा तो गरिमा को लगा चीख़कर उन्हें रोक ले। कहे, पहले मेरी बात का जवाब दीजिए, फिर जाइए। लेकिन कह नहीं पाई, आज फिर उसकी संकोची प्रवृत्ति ने उसे झुका दिया। मां जा चुकी थीं। गरिमा को कोई मार्ग नज़र नहीं आ रहा था, क्या करे? किससे कहे? जी चाहा आशुतोष के दफ़्तर में फोन करके उसे घर पर बुला ले और चीख-चिल्लाकर अपने मन की भड़ास निकाल ले। एक तो आंतरिक घुटन बर्दाश्त के बाहर हो रही थी, ऊपर से मां का रवैया और आशुतोष की चुप्पी जानलेवा सिद्ध हो रही थी। पता तो है आशुतोष को भी कि निक्की की शादी में जाना है। मेरा कार्यक्रम क्या है, कब जाना है, कब लौटना है? कुछ भी तो नहीं पूछा उसने, गरिमा त्रस्त हो गई। कई दिनों से लगातार एक ही विषय पर सोचते-सोचते वह ऊब गई थी। मानसिक यंत्रणा इतनी बढ़ गई कि वह तकिये में मुंह छुपाकर सिसक-सिसक कर रो पड़ी।
न कुछ बनाने की इच्छा हुई, न खाने की। मां निशा के घर गई हैं, तो शाम को ही लौटेंगी। बिस्तर पर पड़े-पड़े कब नींद आ गई गरिमा को, पता ही नहीं चला। अचानक दरवाज़े की घंटी की आवाज़ सुनकर गरिमा हड़बड़ाकर उठ बैठी। घड़ी की तरफ़ देखा, शाम के चार बज रहे थे। सारा शरीर थककर चूर हो गया था। वह बेमन से उठी और दरवाज़ा खोल दिया। सामने आशुतोष खड़ा था। आशुतोष इस वक़्त? वह सोच में पड़ गई। पर आशुतोष के चेहरे पर गरिमा के आश्चर्य को देखकर कोई भाव नहीं उभरा। "गरिमा, मां आज दफ़्तर आई थीं। मुझे दो हज़ार रुपए दिए हमारे टिकट के लिए। मैं रिजर्वेशन करवा कर आया हूं निक्की की शादी के लिए। शादी के दो रोज़ पहले चले जाएंगे। ठीक है न?" शर्ट उतारकर बाथरूम में प्रवेश करते-करते आशुतोष बोला। "क्या तुम भी चलोगे?" "ज़रूर जाऊंगा, वरना भैया क्या सोचेंगे। उनकी पहली बेटी की शादी है और तुम अकेली, नहीं मुझे जाना ही पड़ेगा।" गरिमा चुप रही। हृदय के संशय में कोई अंतर नहीं।
तोहफ़े के संबंध में तय होना जो शेष था। चेहरे पर ख़ुशी का भाव न पाकर आशुतोष बिगड़ गया। "यह क्या गरिमा? टिकट भी ले आया, पर लगता है तुम ख़ुश नहीं। आख़िर क्या बात है?" "निक्की को क्या देंगे, यह भी सोचा है?" "निक्की के लिए कंगन लेने ही तो गई हैं मां।" "क्या?" चौंक गई गरिमा। "हां… उन्होंने तुम्हें नहीं बताया?" "न… नहीं…" "गरिमा, मां पैसे बचाकर रखती थीं, ताकि ज़रूरत पड़ने पर हमें किसी के आगे हाथ न फैलाना पड़े। आज वह दफ़्तर में आकर जब टिकट के पैसे देने लगीं, तो मैं चकित हो गया कि मां के पास इतने पैसे कहां से? तब उन्होंने बताया कि वह घर के ख़र्चे से पैसे बचाती थीं। निशा के बैंक में ही उन्होंने अपना भी एक खाता खोल लिया था। वह निशा के हाथ पैसे जमा करवा दिया करती थीं। इस समय उन्होंने पूरे दस हज़ार रुपए बैंक से निकाले हैं। आठ हज़ार कंगन के, दो हज़ार आने-जाने के।" सच्चाई सामने आते ही चकित रह गई गरिमा, "आशुतोष, यदि मां हमें बता देतीं कि वो पैसे जमा कर रही हैं, हम अनावश्यक तनाव से तो बच जाते।" "गरिमा, मां कह रही थीं, यदि वह हमें बतातीं तो हमारी आवश्यकताएं बढ़ जातीं। हममें ऊलजुलूल चीज़ों को ख़रीदने की इच्छा जागृत हो जाती।
उन्होंने हम दोनों के स्वभाव को समझकर ही ऐसा कदम उठाया था। तुम्हें भी मां से सब सीखना चाहिए।" फिर आगे भी बहुत कुछ बोला आशुतोष, जिसे गरिमा सुन नहीं पाई। वह तो सोच रही थी कि आंखों देखा, कानों सुना भी कैसे ग़लत सिद्ध हो जाता है। उसे तो लगता था कि वह पत्थरों के घर में आ गई है, जहां उसकी किसी को परवाह नहीं है, पर यहां तो सभी उससे प्यार करते हैं। उसके लिए चिंतित रहते हैं। संशयों के दायरे से तो निकल आई थी गरिमा, पर हृदय में चैन अब भी नहीं था। अब तो जब तक मां के चरण छूकर माफ़ी नहीं मांग लेगी, उसे चैन नहीं आएगा। गरिमा अपने को श्रेष्ठ समझती थी। लेकिन गरिमा की चुप्पी, त्याग, सहनशीलता और कर्तव्यपालन का एक प्यारा-सा प्रतिदान देकर मां ने भी अपनी श्रेष्ठता का एहसास उसे करा दिया। गरिमा को लगा, जैसे उसकी सारी अच्छाइयां कितनी बौनी सिद्ध होने लगी हैं त्यागशील और स्नेही मां के सामने।

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