top of page

प्रतियोगिता

नितिन श्रीवास्तव

सुबह-सुबह माँ की आवाज कान में पड़ी, "अब उठ भी जाओ आठ बज रहा है। इतवार का मतलब सारा दिन सोना ही नहीं होता है।" मैं और छोटा भाई अनमने से करवट बदल कर सो गए।
छोटा आँख बंद किये ही बड़बड़ाया, "अरे अब तो इम्तिहान भी ख़तम हो गए अब भी देर तक नहीं सो सकते? उठते ही पचास काम गिना देंगी सब्जी ले आओ, पेड़ में पानी डालो, कूलर में पानी भरो फलाना-फलाना-फलाना। भैया तुम ही उठ जाओ तुम्हें तो वो प्रतियोगिता में भी जाना है न? मैं तो कम से कम दो घंटे और सोऊंगा।"
"प्रतियोगिता?" मैं चिल्ला के उठ गया जैसे बिजली का करंट लगा हो।
मुझे याद आया कि उसी दिन तो श्रृंगेरी पीठ ट्रस्ट की सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता थी।
आमतौर पर हर दूसरे तीसरे रविवार को किसी न किसी संस्थान की प्रतियोगिता आयोजित होती रहती थी और मैं हर एक में भाग जरूर लेता था। हाँ मिलता मिलाता कुछ नहीं था बस मन की तसल्ली हो जाती थी कि दो और प्रश्न सही हो जाते तो कम से कम सांत्वना पुरस्कार तो मिल ही जाता।
फिर हर बार नए जोश और भरपूर तैयारी के साथ मैदान में उतरते।
इस बार भी "प्रतियोगिता प्रवाह", "कौन क्या है?", "मनोरमा वर्षावली" और पिछले दो माह के सारे अखबार चाट डाले थे। इस बार तो कुछ न कुछ लेकर ही आएंगे।
खैर जल्दी से उठ कर मंजन किया तब तक माँ ने चाय और रस मेज पर रख दिया और मैं एक आखिरी बार दोहराने के लिए सारी किताबें लेकर बैठ गया। विज्ञान और इतिहास में मुझे चिंता कभी नहीं हुई लेकिन खेल कूद और राजनीतिक मामलों में थोड़ा मामला मुश्किल लगता था। वही एक बार दोबारा दोहराने लगा। जल्दी-जल्दी चाय और पढाई ख़त्म करके तैयार होने का कार्यक्रम शुरू कर दिया।
ग्यारह बजे से प्रतियोगिता शुरू होनी थी, साढ़े नौ बज चुके थे और सरस्वती शिशु मंदिर तक पहुंचने में भी दस मिनट लग जाते थे। नहा के निकले और माँ ने जो कपडे बिस्तर पर रखे थे पहने। बालों में तेल लगा कंघी किया और जूते पहने।
एक पेंसिल बॉक्स में दो छीली हुई पेन्सिल, एक रबर, एक पेन, छोटी स्केल रखकर उसे थैले में डाला और साथ में लिखने वाला बोर्ड रखा। तैयारी पूरी हो गयी थी इसलिए माँ को आवाज लगाई, "हम जा रहे हैं।"
"रुको भगवान के आगे हाथ जोड़ो फिर घर से बाहर निकालो" माँ दौड़ते हुए रसोई से आईं। जल्दी से जूते उतारे और भगवान के आगे हाथ जोड़े मन ही मन, "इस बार बस सांत्वना पुरस्कार भर का हो जाये कम से कम."
भाग कर साइकिल उठाई और बगल वाले घर के सामने खड़े होकर जोर से आवाज लगाई, "मधुकर जल्दी कर देर हो रही है।"
मधुकर आधा पराठा मुँह में दबाये बाहर आया और इशारे से चलने को बोला पीछे पीछे उसकी माँ आधा पराठा हाथ में लिए भागी-भागी आईं लेकिन उनके आवाज लगा पाने से पहले हम गली के बाहर निकल चुके थे।
छठी कक्षा में भी हमें तब साइकिल से अकेले जाने की आजादी मिल जाया करती थी। साइकिल दौड़ाते हम शिशु मंदिर के आगे पहुंचे। एक-एक करके बच्चे अंदर जा रहे थे, हमने भी साइकिल स्कूल के मैदान में किनारे बने स्टैंड में लगाई और प्रतियोगिता वाली जगह पहुँच गए।
इस बार इंतजाम पिछली बार से अच्छा था। जमीन में दरी भी बिछी थी बैठने के लिए, पीने के पानी के लिए बगल में घड़ा रखा था और ऊपर धुप से बचने के लिए तिरपाल जैसा भी लगाया था। हम दोनों ने एक दुसरे को देखा तो मधुकर बोला, "इस बार ये लोग इसीलिए फॉर्म के साथ एक रुपया भी लिए थे ये सब इंतजाम के लिए, हैं न?"
मैंने हामी में सिर हिलाया और वहां खड़े शिक्षक महोदय को अपना प्रवेश पत्र दिखाया तो उन्होंने हमें हमारी जगह बता दी और हम दोनों अपनी-अपनी जगह बैठ गए।
मैंने अपने थैले से सामान निकाल कर सामने सजा लिया।
पर्चे बांटे जाने लगे तो दिल की धड़कन थोड़ी बढ़ सी गयी, पर्चा हाथ में लेकर एक बार पूरा पढ़ा तो लगा इस बार तो बाजी मार ही लेंगे क्योंकि ज्यादातर प्रश्नों के उत्तर पता थे। अभी अपना नाम पर्चे पर लिख ही रहे थे कि शिक्षक महोदय की आवाज आयी, "इस बार प्रश्न थोड़े ज्यादा हैं और समय उतना ही इसलिए लिखने की गति थोड़ा तेज रखें नहीं तो प्रश्न छूट जायेंगे।"
फटाफट प्रश्नों के उत्तर देना शुरू किया, एक दो ऐसे भी थे जिनका उत्तर पूरी तरह निश्चित नहीं आ रहा था तो उन्हें छोड़ते हुए आगे बढ़ते गए। "आखिरी दस मिनट बचे हैं सभी लोग जल्दी करें और पर्चे जमा कर दें." शिक्षक ने चेतावनी सी दी।
जो प्रश्न छोड़ दिए थे बस वो ही देखना बाकी था। दोबारा देखने पर भी कोई ज्यादा सफलता नहीं मिली तो जो समझ आया विकल्प चुन कर उत्तर पूरे कर दिए।
शिक्षक ने पर्चे जमा करने शुरू किये तो कुछ लोग अभी भी लगे पड़े थे उनसे पर्चे छीनते हुए वो मेरे पास पहुंचे तो मैंने गर्व से पर्चा उनकी ओर बढ़ाया और उन्होंने मेरी ओर देखे बिना ही पर्चा लिया और आगे बढ़ गए।
मैंने देखा मधुकर भी पर्चा जमा करके सामान समेट रहा था तो मैं भी अपना सामान समेट कर उसके पास पहुंच गया। "कैसा रहा?" मेरा स्वाभाविक प्रश्न।
"पता नहीं यार मैं तो तुक्का लगाता जा रहा था।" उसने निराश स्वर में कहा।
ये जानते हुए भी कि मधुकर जैसा मेधावी तुक्का तो नहीं लगाएगा, मैंने उसका झूठ हमेशा की तरह सहर्ष स्वीकार कर लिया।
हम वहां से हट कर बरामदे में आ गए क्योंकि परिणाम के लिए एक घंटा इन्तजार जो करना था।
एक घंटे के बाद परिणाम की घोषणा शुरू हुई प्रथम पुरस्कार के लिए नाम बुलाया गया "महेन्दर" जिसे सुन कर मधुकर थोड़ा निराश हुआ क्योंकि ज्यादातर वो ही प्रथम आता था और उसे इस बार भी उम्मीद थी।
अगला नाम पुकारा गया द्वितीय पुरस्कार के लिए, "रंजन" यानि मेरा, मुझे तो विश्वास ही नहीं हुआ और मैं जल्दी से लड़खड़ाता हुआ आगे पहुंचा। मुख्य अतिथि जो शायद हमारे इलाके के पार्षद थे उन्होंने मुझे प्रशस्ति पत्र और 100 रुपए का नोट दिया मेरा ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं था।
मधुकर को इस बार सांत्वना पुरस्कार से काम चलाना पड़ा लेकिन वो शायद इस बात से ज्यादा दुखी हो रहा था कि मेरे जैसा फिसड्डी दूसरे स्थान पर आ गया।
हम घर पहुंचे और मैंने भागते हुए जाकर माँ को पुरस्कार दिखाया। माँ ने प्यार से माथा चुम लिया और पापा को बताया कि मुझे प्रतियोगिता में पुरस्कार मिला।
पापा ने पुरस्कार हाथ में लिया, "चलो अच्छा है लेकिन पढ़ाई में भी कुछ अच्छा करके दिखाओ तो कुछ बात हो इस सब से थोड़े न अच्छी नौकरी मिलेगी।"
"पापा की सुई भी हमेशा एक ही जगह अटकी रहती है।" मन ही मन सोचा और उनकी बात को अनदेखा करके छोटे भाई को पुरस्कार दिखा कर चिढ़ाने के लिए छत पर भागा जहां वो दोस्तों के साथ खेल रहा था।

******

0 views0 comments

Recent Posts

See All

Comments


bottom of page