सुधा श्रीवास्तव
मैं जब नवी कक्षा में थी, तो मेरी हिंदी की अध्यापिका प्रेमा दीदी थीं। वह एकदम शुद्ध हिंदी बोलती थीं। वैसे तो वो बहुत सीधी और राम भक्त थीं, लेकिन अगर किसी की गलती पकड़ ले, तो बिना सजा दिए नहीं छोड़ती थींl उनकी इस आदत से सारी कक्षा बहुत परेशान थी।
एक दिन उन्होंने मुझे और मेरी सहेली को प्रार्थना में ना आने और कक्षा में बैठे खेलते हुए पकड़ लिया।
अब क्या मेरी और मेरी सहेली की शामत आ गई थी, उन्होंने हम दोनों को एक साथ अपने कक्ष में बुलाया। मैं और मेरी सहेली बहुत डरे हुए थे। दिन में ही तारे दिखाई देने लगे थे। मन को शांत रखने के लिए आपस में ये चौपाई रटते हुए उनके कक्ष में जाने लगे-
होइहि सोई जो राम रचि राखा,
को करि तर्क बढ़ावे साखा।
हम लोगों को यह नहीं मालूम था कि हमारी अध्यापिका हमारे पीछे ही चली आ रही थी। यह तो तब पता चला जब अचानक से हमारे कानों में यह सुनाई दिया-
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा,
जो जस करहि सो तस फल चाखा।
इतना सुनते ही हम लोगों के होश उड़ गए। उस दिन हम लोग को जो डांट पड़ी, वह बताने लायक नहीं है।
आज भी हम लोग वह शैतानियों के दिन याद करते हैं, तो हम मुस्कराने लगते हैँ। जाने कहां चले गए वह दिन, जब मन हर रोज नई शैतानी ढूंढ लेता था।
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