डॉ. अश्वनी कुमार मल्होत्रा
आज की कहानी एक संयुक्त परिवार की कहानी है। घर के मुख्य, आनंद स्वरुप अब वृद्ध हो चुके है, उन्हें हृदय रोग व डायबिटीज भी है। उनकी पत्नी लीलावती का दो साल पहले देहांत हो गया है। उनके तीन पुत्र, रौनक, सुशील, प्रभात और एक पुत्री है, नेहा। सब बच्चों की शादी हो गई है और सब इक्कठे, एक ही छत के नीचे रहते हैं, परन्तु रसोई अलग है। बेटी और दामाद भी साथ रहते हैं।
आनंद स्वरुप का मुख्य बाजार में साड़ियों का बड़ा शोरूम है और सब बेटे और दामाद उसमें काम करते हैं। सब को 50,000 महीने का जेब खर्च दिया जाता है। घर का खर्च और अपने पोते पोतियों की फीस दुकान से अलग दी जाती है। आनद स्वरुप की यह सोच है कि साथ में रहने से प्यार बढ़ता है और धन दौलत भी सुरक्षित रहेगी।
सबसे छोटे बेटे की बहु, बैंक में नौकरी करती है, बाकी दोनों बहुए और बेटी रसोई और घर का काम देखती हैं। उनकी सहायता के लिए अलग से कई नौकर हैं।
एक रात तीनों बेटे और बेटी उनके कमरे में आते हैं।
"क्या बात है, मुझसे कुछ कहना है?" आनंद स्वरुप ने पुछा।
"पिताजी, हम सब को आपसे कुछ कहना है," बड़े बेटे रौनक ने कहा।
"हां हां बेटे कहो, खुल कर कहो, जिझको नहीं,"
"पिताजी हम सोच रहे थे कि अब जगह कम पड़ रही, बच्चे भी बड़े हो रहे हैं तो अलग-अलग फ्लैट ले ले। हमने कुछ फ्लैट देखे भी हैं," रौनक ने कहा।
सब ने सर हलकार उसका समर्थन किया।
"हम्म," कहते हुए आनंद स्वरुप सोच में डूब गए।
"मतलब अब तुम जायदाद का बटवारा चाहते हो? दूकान के भी हिस्से चाहते हो?"
सब ने चुपी से हामी भरी।
"देखो बेटा, मैंने पहले ही सोच कर रखा है कि अब तुम लोग बड़े हो गए हो, तुम्हारी अपनी भी औलाद बड़ी हो रही हैं तो सब को जगह कम पड़ रही है। इसलिए मैंने पहले ही ऐसा सोचा है कि सब को एक-एक फ्लैट दिया जाये। पर जहाँ तक दूकान का बटवारा है वह नहीं हो सकता। कम से कम मेरे जीते जी। मेरे मरने के बाद सब कुछ तुम लोगों का है। फिर जो मर्ज़ी करना, मैं कौन सा देखने आ रहा हूँ। अब ठीक है न, सबको मंज़ूर है ना?"
आपत्ति कि गुंजाईश ही कहा थी? आनंद स्वरुप ने अपनी सूझ-भुझ से बटवारे का मसला हल कर दिया।
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