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बड़े पापा

डॉ. कृष्णा कांत श्रीवास्तव

शुक्ला विला से असमय आ रही हंसी-ठिठोली की आवाज़ से पूरा मोहल्ला जान गया था कि परिवार में फिर महफ़िलों का दौर चल पड़ा है। बच्चों का तेज़ म्यूज़िक बजाकर डांस करना, बड़ों का हा-हा, ही-ही करते हुए कभी लॉन में, कभी टैरेस पर, कभी बैठक में ज़ोर-ज़ोर से गप्पे लड़ाना, समय-बेसमय चाय का दौर चलना, ताश की बाज़ी सजना, नौकरों का भाग-भागकर काम करना, पिछले दो दिनों से वहां यही सीन चल रहा था। ऐसा दृश्य हर साल गर्मियों की छुट्टियों में उत्पन्न हो जाता था। जब इस कोठी की दोनों बेटियां अपने-अपने बाल-बच्चों संग छुट्टियां बिताने मायके आती थीं, तब इस कोठी की रौनक़ देखने लायक होती थी, मगर इस बार ये रौनक़, ये उत्साह कुछ ज़्यादा ही उफ़ान पर था और हो भी क्यों न, कारण भी तो बड़ा था।
शुक्ला विला की नींव स्वर्गीय सीताराम शुक्लाजी ने रखी थी, जो रुड़की शहर के जाने-माने कपड़ा व्यापारी थे। उन्हें और उनकी पत्नी को गुज़रे कई साल हो गए। उनके तीन बेटों कृष्णचंद्र, रामेश्‍वर और मनमोहन एवं दो बेटियों निर्मला और कुसुम के बचपन, जवानी, शादी-ब्याह, बहू-दामादों, नाती-पोतों के आगमन का साक्षी बना था यह शुक्ला विला। आज उसी के आंगन में मंझले बेटे रामेश्‍वर की बड़ी संतान और नई पीढ़ी की अग्रजा 23 वर्षीया नम्रता की शादी के चर्चे चल रहे थे।
शुक्ला परिवार की नई पीढ़ी में नम्रता सहित कुल 9 किशोरवय बच्चे थे। सभी का आपस में बहुत प्रेम था। जब भी मिलते, ख़ूब धमाचौकड़ी मचाते। उन सभी को सम्मिलित रूप से ‘शुक्ला गैंग’ के नाम से संबोधित किया जाता था। यह गैंग थोड़ी और बड़ी होती अगर बड़े भाई कृष्णचंद्र की पत्नी और दुधमुंही बच्ची की एक कार दुर्घटना में असमय मृत्यु न हुई होती। कार वे ही चला रहे थे, किन्तु ईश्‍वर ने उन पर थोड़ी दया दिखाई। चोटें बहुत थीं, मगर प्राण बच गए थे। वे स्वयं को इस दुर्घटना का दोषी मानकर ग्लानि के ऐसे भंवर में उलझे कि सालों बाद भी नहीं उबरे थे। इस घटना के बाद उन्होंने स्वयं को बस अनवरत श्रम की भट्ठी में झोंक दिया था। उनकी निरंतर मेहनत का ही परिणाम था कि पिता का बिज़नेस दिन दूनी, रात चौगुनी तऱक्क़ी कर रहा था।
कृष्णचंद्र ऐसे हंसी-ठट्टों, गप्पों की महफ़िलों का कभी हिस्सा न बनते। काम से घर लौटकर सबका संक्षिप्त हालचाल पूछते और चुपचाप खाना खाकर सीधा अपने कमरे में चले जाते। वहां भी देर रात तक व्यापार के अकाउंट्स ही निपटाते रहते। परिवार में उनका एक कड़क अनुशासित पिता के समान दबदबा था और हो भी क्यों न, छोटे भाई-बहनों की शादियां, रोज़गार आदि सभी ज़िम्मेदारियां उन्होंने ही उठाई थी। भाई-बहन उन्हें ‘बड़े भाईसाहब’ और बच्चे ‘बड़े पापा’ कहकर संबोधित करते।
आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। उनके घर में आते सभी शालीनता की मूर्ति बनकर बैठ गए। उन्होंने सबके हालचाल पूछे, खाना खाया और अपने कमरे की तरफ़ रुख कर लिया। उनके जाते ही सभी मिल-बैठकर चार दिन बाद होनेवाली रोके की रस्म की प्लानिंग करने लगे। शुक्ला गैंग डेस्टिनेशन वेडिंग की तरह डेस्टिनेशन रोके की ज़िद पर अड़ा था। निर्मला की बेटी नव्या बोली, “सुनिए, सुनिए, शुक्ला गैंग पूरी प्लानिंग कर चुका है। रस्म मसूरी के एक रिसॉर्ट में होगी। लड़केवाले भी वहीं आ जाएंगे। सभी वहां दो दिन रुकेंगे। ख़ूब नाच-गाना, धमाल-मस्ती होगी। इस तरह से हमें अपने जीजाजी के और जीजाजी को जिज्जी के साथ व़क्त बिताने का भरपूर मौक़ा मिलेगा।” कहते हुए उसने नम्रता की तरफ़ आंख मारी, तो वह थोड़ी लजा गई। “नहीं-नहीं, ऐसा अच्छा लगता है क्या? रोके की रस्म तो घर पर ही होनी चाहिए।” कुसुम बोली।
“बस-बस मौसी, आप हमारी प्लानिंग की यूं बखिया मत उधेड़ो। इस बार हम बच्चों की चलेगी, आप बड़ों की नहीं। पिछले दो सालों से आप लोग हमें गर्मियों में घुमाने के नाम पर तीर्थयात्राएं करा रहे हैं और हम कुछ नहीं बोले, लेकिन इस बार नहीं। हमारी नम्रता दी का रोका हमारे हिसाब से ही होगा।” नव्या की बात को सभी बच्चों ने ज़ोरदार तरी़के से सपोर्ट किया।
“अरे, अरे, रुको ज़रा, प्रोग्राम अकेले हमारा थोड़े ही है, लड़के वालों की भी तो सहमति चाहिए। उनसे भी तो बात करनी पड़ेगी।” नम्रता के चाचू मनमोहन ने अपना पक्ष रखा। “आपको वो सब सोचने की ज़रूरत नहीं मामू, हमने जीजाजी से बात कर ली है, वे भी हमारे इस आइडिया से ख़ुश हैं और हां, हम रिसॉर्ट मैनेजर और ईवेंट प्लानर से भी बात कर चुके हैं। सब कुछ फाइनल है, आपको तो बस किराए और कैश का इंतज़ाम करना है, बाकी सब हम संभाल लेंगे।” नव्या पूरे शुक्ला गैंग की तरफ़ से हाथ नचाते हुए बोली।
सब बड़े सिर पकड़कर बैठ गए, “बाप रे, आजकल के बच्चे रॉकेट से भी तेज़ हैं।” कुसुम मौसी के कमेंट पर नव्या तपाक से बोली, “सही पकड़े हैं।” तो सब हंसने लगे।
“ठीक है, ठीक है, हमें कोई आपत्ति नहीं, पर एक बार ज़रा अपने बड़े पापा से भी पूछकर देख लो, कनवेंस मैं संभाल लूंगा, मगर कैश तो वहीं से निकलवाना है।” नम्रता के पिता रामेश्‍वर बोले। उनका नाम आते ही सबको जैसे सांप सूंघ गया।
“बड़े पापा क्यों मना करने लगे। मुझे पूरा यक़ीन है, उन्हें इसमें कोई आपत्ति न होगी।” नम्रता का स्वर आश्‍वस्त था।
“हां, हां दी, उन्हें भला क्या आपत्ति होने लगी, अगर उनकी लाडली भतीजी की बात हो, तो सारी आपत्तियां-विपत्तियां हवा हो जाती हैं। ये सब तो हम बाकी बचे-खुचे प्राणियों के समय ही निकल-निकल के आती हैं।” नम्रता के चचेरे भाई राघव की बात पर जब पूरे शुक्ला गैंग ने हां में हां मिलाई, तो नम्रता चिढ़कर मुंह फुलाकर बैठ गई।
बात ग़लत भी नहीं थी। बड़े पापा का नम्रता से कुछ विशेष लगाव था, जो मौ़के-बेमौ़के ज़ाहिर हो ही जाता। बाकी बच्चों के साथ सख़्त कायदे-क़ानून से पेश आनेवाले बड़े पापा नम्रता की बात आते ही मोम की तरह पिघल जाते। इसका एक सबूत तो तब देखने को मिला था, जब नम्रता का आईआईटी में सिलेक्शन हुआ था। पूरा परिवार चाहता था कि नम्रता रुड़की आईआईटी में ही पढ़ाई करे। इस तरह वह घर में रहकर इंजीनियरिंग कर लेगी, मगर उसने मुंबई आईआईटी जाने की ज़िद पकड़ी थी। ऐसे में उसने अपने मन की बात बड़े पापा को बताई, तो वे सबको अपना फ़रमान सुनाते हुए बोले, “घर में यह सबसे समझदार बच्ची है, अगर इसने आईआईटी मुंबई जाने का फैसला लिया है, तो कुछ सोच-समझकर ही लिया होगा। इसे जाने दो।” यह सुनकर सब हैरान रह गए। बाकी बच्चे तो नम्रता के मुक़ाबले नासमझ ठहराए जाने पर ईर्ष्या से जल उठे।
बड़े पापा के सपोर्ट से नम्रता आईआईटी मुंबई से पासआउट होकर निकली और दिल्ली की एक कंपनी में जॉइन कर लिया। दूसरी बार उनका लगाव तब देखने को मिला, जब नम्रता ने अपने विजातीय सहकर्मी आयुष से प्रेमविवाह करने की ठानी। एक बार फिर पूरा परिवार उसके विरुद्ध हो गया। मगर बड़े पापा ने आयुष की छानबीन कराई, उसके परिवार से जाकर मिले और अकेले ही रिश्ता पक्का कर आए।
घर आकर इतना भर कहा, “जिसमें बेटियों की ख़ुशी हो, वही करना चाहिए।” एक बार फिर उनकी बात सबको स्वीकारनी पड़ी। इन्हीं पूर्व अनुभवों ने नम्रता को आश्‍वस्त कर दिया था कि बड़े पापा उसका यह आग्रह भी मान लेंगे। मगर वह स्वयं अपने रोके की योजना कैसे बताती, सो यह ज़िम्मेदारी निर्मला बुआ के कंधों पर डाली गई। उन्होंने बड़े भाईसाहब से बात की और वे वाकई बिना किसी किंतु-परंतु के तैयार हो गए। साथ ही यह भी कह डाला, “ध्यान रहे, इंतज़ाम में कोई कमी न रह जाए, जो भी ख़र्च होगा उसकी मैं व्यवस्था कर दूंगा।” निर्मला ने सबको यह ख़ुशख़बरी सुनाई, तो उनके चेहरे खिल उठे।
“बस, एक ही बात है, जो खटक रही है।” निर्मला बोली, तो सबके चेहरे पर प्रश्‍न चिह्न लग गया।
“बड़े भाई साहब हमारे साथ मसूरी नहीं आ पाएंगे, कह रहे थे बिज़नेस में कुछ ज़रूरी डीलिंग चल रही है, तो किसी को तो देखनी पड़ेगी। तुम लोग जाओ, मैं यहां संभाल लूंगा।”
“ओह! भाईसाहब भी ना, हमेशा ऐसा ही करते हैं। मुझे तो याद ही नहीं कि कभी वे हमारे साथ कहीं बाहर गए हों।” रामेश्‍वर के स्वर से नाराज़गी फूट रही थी।
“वो भी क्या करें, सारा व्यापार वही तो संभालते हैं, कितने काम रहते हैं उन्हें,” कुसुम की बात दोनों भाइयों को तंज की तरह चुभ गई। बात सही भी थी। सारा बोझ बड़े भाईसाहब के कंधों पर डालकर सभी अपने संपन्न जीवन का आनंद उठा रहे थे। दोनों भाई सहयोग करते थे, मगर किसी सहायक से ज़्यादा नहीं। अपनी पत्नी और बच्ची को खोने के बाद बड़े भाईसाहब काम में डूब गए और दोनों भाइयों ने बजाय उन्हें उबारने के, अपने-अपने कंधे के बोझ भी उनके ऊपर डाल दिए और ख़ुद ज़िम्मेदारियों से मुक्त होते चले गए।
“हमेशा की बात अलग थी, पर ये नम्रता के रोके की बात है। अगर नम्रता की जगह उनकी अपनी बेटी होती तो।” कहते-कहते नम्रता की मां रुक गई।
“अरे भाभी दुखी न हों। हम हैं ना। हम सब संभाल लेंगे। भाईसाहब वैसे भी कहीं आते-जाते नहीं हैं, इसलिए उनसे कुछ कहना-सुनना बेकार ही है। सालों से ऐसे ही चल रहा है और आगे भी ऐसा ही चलेगा। तुम उनके बारे में सोचकर जी छोटा मत करो। अब तो रोके की तैयारी के बारे में सोचो। स़िर्फ चार दिन बचे हैं।” मनमोहन के समझाने पर बड़े भाईसाहब के न चलने की बात को हमेशा की तरह सबने स्वीकार कर लिया।
दिन तेज़ी से गुज़रने लगे। सभी अपनी-अपनी तैयारियों में जुटे थे, नम्रता भी। लेकिन इस बात से वह अंदर ही अंदर दुखी थी कि उसके रोके पर बड़े पापा साथ नहीं होंगे। आज रात जब वह सोने की कोशिश कर रही थी, तो बचपन से लेकर अब तक की वे समस्त मधुर स्मृतियां उसकी नज़रों के आगे तैरने लगीं, जो बड़े पापा से जुड़ी थीं। मां कहती थीं, उस एक्सीडेंट के बाद वे पहली बार तब मुस्कुराए थे, जब तुझे गोद में लिया था। तू जन्मी तो कहने लगे, ‘चलो कम से कम मेरी खोई हुई बिटिया तो वापस आई।’ उसका नम्रता नाम भी बड़े पापा का ही दिया हुआ था, जो उनकी अपनी बेटी का था।
नम्रता को याद आ रहा था कैसे बड़े पापा घर के सभी सदस्यों की ज़रूरतों का, उनकी सुविधाओं का ख़्याल रखते हैं। अपने लिए तो शायद ही कभी कुछ चाहा या मांगा हो। मेरे लिए तो वे मेरे पापा से भी बढ़कर हैं। वे सच में मेरे बड़े पापा हैं और वही मेरे जीवन के इतने बड़े पड़ाव पर मेरे साथ खड़े नहीं होंगे! नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। उन्हें होना ही होगा। इस दृढ़ निश्‍चय के साथ नम्रता उठी और बड़े पापा के कमरे में चली गई। वे खिड़की पर खड़े आकाश को निहार रहे थे। एक अजीब-सी तन्हाई और उदासी उनके चेहरे पर फैली थी। नम्रता को आता देख वे थोड़े संयत हुए, “आओ बेटी।”
“बड़े पापा, कल मेरे जीवन का इतना महत्वपूर्ण दिन है और आप ही की वजह से यह दिन आया है, पर आप ही वहां नहीं होंगे मुझे अपना आशीर्वाद देने के लिए।”
“ये क्या कह रही हो बेटी, मैं वहां रहूं या न रहूं, इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है, मेरा आशीर्वाद तो हमेशा ही तुम्हारे साथ है। वैसे भी, मैं नहीं तो क्या, बाकी सभी तो होंगे ही तुम्हारे साथ।”
“बाकी सभी भले हों, मगर आप तो नहीं होंगे न और इस बात से मुझे फ़र्क़ पड़ता है। बहुत फ़र्क़ पड़ता है।” नम्रता आंखों में अनुग्रह लिए उदास स्वर में बोली। यह सुनकर बड़े पापा की आंखें भर आईं, स्वर रुंध गया।
बमुश्किल संभलकर बोले, “सुन बेटी, दिल छोटा मत कर, तू ख़ुशी-ख़ुशी जा। अगर ज़रूरी काम न होता, तो मैं भी आ जाता। ख़ैर, मेरा होना तेरे लिए ज़रूरी है, मैं तो यह सुनकर ही गदगद हो गया हूं। बाकी किसी ने तो मुझसे एक बार भी साथ चलने को नहीं कहा।”
“साथ चलने को तो मैं भी नहीं कह रही हूं बड़े पापा।” नम्रता का स्वर गंभीर था।
“तो फिर?” कृष्णचंद्र को नम्रता की बात कुछ समझ नहीं आई। “मैं जानती हूं बड़े पापा, अगर मैं कहूंगी भी तो आप साथ नहीं आएंगे, इसलिए मैं आपको साथ चलने को कहने नहीं आई हूं। मैं तो यह कहने आई हूं कि आपके बग़ैर यह रोका नहीं होगा। उस समय, उस मुहूर्त पर आप जहां होंगे, मेरा रोका वहीं होगा। आप घर पर होंगे, तो घर में, ऑफिस में होंगे, तो ऑफिस में, कार में, शोरूम पर। आप जहां होंगे बस हमें पांच मिनट दे देना, हम वहीं रोका कर लेंगे।”
“पागल हो गई है क्या? सब व्यवस्थाएं हो चुकी हैं, आयुष के घरवाले क्या सोचेंगे।”
“वो कुछ भी सोचें, मुझे परवाह नहीं। मेरे लिए आप सबसे इंपॉर्टेंट हैं और इस बार मैं आपको यूं बच के नहीं जाने दूंगी।” यह सब सुन कृष्णचंद्र पत्थर से जम गए। उन्हें यूं चुप खड़ा देख नम्रता जाने लगी, “चलिए ये ख़ुशख़बरी मैं बाकी सभी को भी दे आऊं कि रोका मसूरी में नहीं, बल्कि यहीं होगा, बड़े पापा के साथ।” नम्रता को जाता देख कृष्णचंद्र पीछे से बोले, “रुक, सुन तो, मैं चलूंगा तेरे साथ।”
“क्या कहा, फिर से कहिए। मैंने ठीक से सुना नहीं।” नम्रता ने न सुनने की एक्टिंग की।
“मैंने कहा कोई ज़रूरत नहीं है किसी से कुछ कहने की, मैं साथ चलूंगा।”
“और आपके सो कॉल्ड ज़रूरी काम, उनका क्या होगा?”
“कोई ज़रूरी काम नहीं है। परिवार के आगे मेरे कभी कोई ज़रूरी काम नहीं रहे।”
“तो फिर ये न जाने का ड्रामा क्यों कर रहे थे?” नम्रता झूठा ग़ुस्सा ज़ाहिर करते हुए बोली।
“इसलिए कि कोई तो मुझे भी पूछे, मेरे साथ ज़िद करे। मेरी मान-मनुहार करे। मैं इतने सालों से तुम सभी का दुख-दर्द बिन कहे समझता आया हूं। बिन मांगे सब देता आया हूं, क्यों? क्योंकि यह परिवार मेरे लिए बहुत मायने रखता है। इस परिवार के बिना मेरा वजूद अधूरा है, मगर क्या मैं भी इस परिवार के लिए कुछ मायने रखता हूं? क्या मेरी उपस्थिति भी इस परिवार के लिए ज़रूरी है? मैंने जब भी तुम लोगों के साथ कहीं जाने को मना किया, तो बस यह जानने के लिए कि मेरे होने या न होने से तुम लोगों को कुछ फ़र्क़ पड़ता भी है या नहीं। पर हर बार मेरे हाथ बस निराशा ही लगी।” बड़े पापा की बातें सुनकर नम्रता स्तब्ध रह गई।
“ये क्या कह रहे हैं बड़े पापा। आप हम सभी के लिए बहुत मायने रखते हैं।”
“नहीं, सभी के लिए नहीं, वरना जब भी मैंने किसी फैमिली आउटिंग या फंक्शन पर आने में असमर्थता जताई, तो क्या किसी ने मुझे साथ चलने के लिए मनाया? किसी ने कहा कि आप नहीं जाएंगे, तो हम भी नहीं जाएंगे। नम्रता, मैं भले ही बूढ़ा होता जा रहा हूं, पर मेरे अंदर अभी भी एक बच्चा छिपा है, जो तुम सबकी आंखों में अपने लिए प्यार और अहमियत देखना चाहता है। जो चाहता है कि कोई उसके कामों को, उसके योगदान को सराहे, उसकी कमी को महसूस करे। उसे यक़ीन दिलाए कि वह उनके लिए कितना महत्वपूर्ण है, मगर अफ़सोस! इस घर में सबने मुझे हमेशा फॉर ग्रांटेड ही लिया।
मैं धीरे-धीरे दूर होता गया और सबने मुझे सहजता से दूर होने दिया। किसी ने मुझे खींचकर अपनी चौकड़ी में शामिल नहीं किया और अगर आज तुम भी मुझे मनाने नहीं आतीं, तो मैं पूरी तरह से टूट जाता।” मन की पीड़ा कहते-कहते बड़े पापा की आंखों से अविरल अश्रुधारा बह रही थी, जो न जाने कितने बरस का जमा गुबार पिघलाकर बाहर ला रही थी। उनकी पीड़ा से वाक़िफ़ हो नम्रता की भी आंखें और दिल दोनों भर आए।
सच ही तो कह रहे थे बड़े पापा, आज तक पूरे परिवार ने उन्हें पिता समान होने का तमगा पहनाकर एक सर्विस प्रोवाइडर ही तो बना कर रखा है, जो उनके बदले मर-खपकर उनके लिए धन और सुविधाएं जुटा रहा है। उनकी भावनाओं को कब किसी ने सुनने-समझने का प्रयास किया? पर अब ऐसा नहीं होगा, वह सबसे इस बारे में बात करेगी। भारी हुए माहौल को हल्का करने के लिए नम्रता आंखें पोंछकर उनकी आलमारी खोलते हुए बोली, “चलिए, इमोशनल बातें बहुत हुईं, अब आपकी ड्रेस देखते हैं कि कल क्या पहन सकते हैं, आपने तो कोई नई ड्रेस बनवाई नहीं होगी।”
“क्यों नहीं बनवाई। ज़रूर बनवाई है। यह देख।” बड़े पापा ने एक बेहद सुंदर एंब्रॉयडरीवाला सिल्क कुर्ता-पायजामा आलमारी से निकालकर दिखाते हुए कहा। उसे देख नम्रता की आंखें खुली की खुली रह गईं।
“ओह, तो आप सारी तैयारी किए बैठे थे।”
“हां, क्योंकि मेरे दिल के किसी कोने में उम्मीद थी कि कोई और मुझे मनाए या न मनाए, मगर तू मुझे ज़रूर मनाकर संग ले जाएगी। तू मेरी प्यारी बिटिया जो है।” यह सुनकर नम्रता अपने बड़े पापा से किसी छोटे बच्चे की तरह लिपट गई। वह मन ही मन ऊपरवाले को शुक्रिया अदा कर रही थी कि अच्छा हुआ, जो उसे सही समय पर बुद्धि आ गई और वह उन्हें मनाने चली आई, वरना आज वे कितनी बुरी तरह टूटकर बिखर जाते और किसी को कानोंकान ख़बर भी न होती। खिड़की से कमरे में आ रही चांदनी गवाह थी कि आज नम्रता की एक पहल से बड़े पापा के दिल में पैठ किया अंधकार सदा के लिए दूर हो रहा था।

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