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बस अब और नहीं

सुषमा यादव

सुमन आज सुबह से ही फिर चुपके-चुपके सुबक रहीं थीं। उनके पति केशव आये और बोले, कितनी बार तुम्हें समझाया, पर तुम मेरी एक नहीं सुनती हो। अब बेटे बहू के साथ रहना है तो कुछ सह कर, सामंजस्य बिठा कर रहना पड़ेगा। यह सब थोड़ा बहुत तो हर घर में चलता है।
सुमन एकदम से फट पड़ी, हां, हां, आप तो हमेशा की तरह मेरा ही गला पकड़ोगे, मुझे ही हर बार जिम्मेदार ठहरा देते हैं। आपने देखा नहीं किस तरह सुबह चाय मांगने पर बहू ने मेरा कितना अपमान किया, बेटे ने भी कह दिया मैं सास बहू के बीच नहीं पड़ूंगा। मैं तो आपकी और अपनी चाय बना सकतीं हूं। खाना, नाश्ता सबके लिए बना दूं। पर मुझे तो रसोई में जाने से मना कर दिया गया है।
मेरी ही गलती हर बार होती है क्या?
केशव जी बोले, सब समय-समय की बात है। क्या करूं? कुछ बोलकर घर की शांति भंग नहीं करना चाहता। यहां रहना है तो चुपचाप सब सहना होगा, वरना अपने घर चलते हैं। सुमन खामोश हो गई क्योंकि इस पर भी उसका ही सब गला पकड़ेंगे, उसे ही जिम्मेदार ठहराया जाएगा।
केशव कुछ नहीं कह रहे थे, इसका गलत मतलब बेटे बहू निकाल रहे थे। उन्हें लगता, बाबू जी तो हमारे साथ हैं, हम चाहे जैसे चाहें इन्हें नचा सकते हैं।
केशव जी सब समझ रहे थे पर मुंह से कुछ बोल नहीं रहे थे। बहू रो रो कर पूरा घर इकट्ठा कर लेती है, पड़ोसी पूछने आ जाते हैं।
एक दिन दोपहर में केशव जी की नींद खुल गई। रसोई से बहू और पोती की जोर जोर से चिल्लाने की आवाज आ रही थी। मां जी, आपको कितनी बार कहा है कि रसोई में पैर मत रखा करिए, पर आप मानतीं नहीं है। सुमन सहमी सी कह रही थी, बहू, प्यास लगी थी, इसलिए आई, मैंने पोती रिमी से भी कहा कि मुझे पानी दे दो, इसने साफ मना कर दिया। मैं तो इसे भी पानी दे रही थी, पर इसने कहा, मैं आपके गंदे हाथों से पानी नहीं लूंगी और प्यासी ही रोती हुई पति को देखते अपने कमरे की ओर जाने लगी। इतने में बेटा भी आ गया। मां, आप छोटी-छोटी बातों का बतंगड़ बना देती हैं।
अब केशव से रहा नहीं गया, चिल्ला कर बोले। आज तक मैं चुप रहा, सबका लिहाज करता रहा। पर आज तुम सबने हद ही कर दी। अपनी मां की इज्जत, मान सम्मान की धज्जियां उड़ा दी। इतनी गर्मी में वो इंतजार करे, कोई उसे पानी आकर पिलाये।
बेटे जी, हम तुम्हारे घर अपने से नहीं आये थे, तुमने और बहू ने मीठी-मीठी बातें करके हमें यहां बुलाया। मां, बाबू जी आपके लिए एक कमरा अलग से बनवा रहें हैं, आप दोनों हमेशा यहीं रहेंगें।
बस कुछ मदद कर दीजिए और मेरे दो तीन लाख रुपए ले लिए। कहां है हमारा अलग कमरा।
बहू, तुम सामान, सब्जी की लिस्ट और बिजली, पानी, मकान का बिल मुझे थमा कर कहती हो, बाबूजी, एटीएम से पैसे नहीं निकाल पाई। फिर दे दूंगी। आज तक कितने पैसे तुमने मुझे दिये। अगर पेंशन नहीं मिलती तो मैं कहां से सब खर्च करता। मेरा तो बैंक बैलेंस घटता जा रहा है और तुम दोनों अपनी चालाकियों से अपना बैंक बैलेंस बढ़ाते जा रहे हो। आज तक कभी हम दोनों के लिए एक रुमाल भी लाए हो। हमें खाने के साथ दूध देते हो उसमें भी पानी मिलाते हो। जबकि दूध मैं ही लेकर आता हूं। बस अब और नहीं। मैं हमेशा तुम्हारी मां का ही गला पकड़ता था, हमेशा तुम्हारा पक्ष लेकर उसे ही जिम्मेदार ठहराया करता, पर इस सबके जिम्मेदार तुम लोग हो। अब हम दोनों यहां से जा रहें हैं, हमेशा के लिए और हां जो तुमने जबरदस्ती मेरी वसीयत बहू के नाम करवा ली थी उसे भी मैं बदल कर अपनी पत्नी के नाम करूंगा। ताकि मेरे जाने के बाद वह किसी की मोहताज ना रहे, तुम लोगों का जुल्म उसे ना सहना पड़े।
सारी जिंदगी हर कठिन परिस्थितियों में इसने मुझे सहारा दिया, आज मैं तुम्हारे रहमो-करम पर इसे छोड़ दूं। बूढ़ापे में यह ही मेरा सहारा बनेगी।
जिसका कोई नहीं होता, उसका खिवैया भगवान होता है। कहकर अपना सामान समेट कर सुमन का हाथ पकड़ कर केशव जी गर्व से अपने गांव जाने के लिए बस पकड़ने निकल पड़े।

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