दीपशिखा-
मुहब्बत तेरा शाना चाहता है,
कोई आँसू बहाना चाहता है।
असर है आशिक़ी का इक समुन्दर,
नदी में डूब जाना चाहता है।
बदल बैठा है फ़ितरत ये परिंदा,
कफ़स में आबो दाना चाहता है।
हमेशा से है आदम की ये फ़ितरत,
कि वर्जित फल ही खाना चाहता है।
अँधेरे उसको भी क्या बख़्श देंगे,
जो सूरज को बुझाना चाहता है।
मेरा किरदार अपने वास्ते अब,
कोई बेहतर फ़साना चाहता है।
मेरे आँसू गवाही दे रहे हैं,
कि ग़म भी मुस्कुराना चाहता है।
वही क्यों जाने हम सब देखते हैं,
ज़माना जो दिखाना चाहता है।
जनाज़ा है 'शिखा' ये हसरतों का,
जिसे दिल ख़ुद उठाना चाहता है।
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