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बात जो भारी पड़ गई

शुभ्रा बैनर्जी

सुधा के छोटे ननदोई जी रेलवे में इंजीनियर के पद पर कार्यरत थे। पुरोहित का काम उनके परिवार में पीढ़ियों से चला आ रहा था। शादी के बाद पहली बार मायके आकर ही छोटी ननद ने बताया था "भाभी, ससुराल में सभी बहुत नियम कायदे से रहते हैं। घर में बने मंदिर में पहले पूजा होती है, फिर कोई काम शुरू होता है। पूजा-पाठ में थोड़ी सी भी कमी बर्दाश्त नहीं करते, तुम्हारे ननदोई।"
सुधा की सास भी पंडित की बेटी थीं। अपनी बेटी के मुंह से उसकी ससुराल में चलने वाले नियम-कानून सुनकर कहां पीछे रहने वाली थी, झट बोलीं "हमारे घर में भी नियम-कानून थे। मेरे पिताजी भी पंडिताई करते थे। समय के साथ तोड़-मरोड़ दिए सारे नियम मैंने। "ननद इशारे से मां को चुप रहने को कहती रही, पर मां तो दामाद के सामने चुप ही नहीं हो रहीं थीं।
ननदोई ने सुबह से नहा धोकर अपना पूजा-पाठ शुरू कर दिया,  तो मां फिर बोल पड़ीं "ये तो कुछ भी नहीं, मेरे पिताजी आठ घंटे ध्यान में रहते थे। हमारी हिम्मत ही नहीं होती थी कि पूजा घर में चले जाएं।"
सुधा ने बड़ी मुश्किल से दो-तीन दिन उन्हें संभाला। ननद की शादी के कुछ महीने बाद ही सुधा को बेटा हुआ। छठी पूजा में सास के आग्रह पर छोटे दामाद आए थे पूजा करने। छोटे से बच्चे के साथ सुधा एक कमरे में अलग रह रही थी। दामाद के सामने सासू मां जोर-शोर से नियमों का पालन कर रही थी। कड़कड़ाती ठंड में जितनी बार वो अपने पोते को गोद में लेती, नहाना पड़ता। सुधा को ननदोई के रहते भरपूर आराम मिला। दो दिन में ही सासू मां की हालत खराब हो चुकी थी। दामाद जी भी जान-बूझकर नए-नए नियम बताए जा रहे थे। उनकी विदाई के बाद सासू मां ने चैन की सांस ली।
सुधा की ननद ने वापस जाकर फोन पर बताया कि ननदोई जी नाराज हो रहे थे, कि कुछ नियम नहीं मानते तुम लोग।"
सुधा सास और दामाद के बीच चल रहे शीत युद्ध से परेशान हो गई थी। भगवान ने बहुत जल्दी ही हल निकाल दिया। सुधा की छोटी ननद मायके आई पहले बच्चे के समय। निर्धारित तिथि निकल जाने पर भी प्रसव पीड़ा नहीं हुई। ननदोई जी बेहाल हो रहे थे, ससुराल में उचित चिकित्सकीय सुविधा ना होने पर। तय तिथि से दो दिन के बाद छोटी ननद ने बेटी को जन्म दिया। ननदोई जी का मुंह बरैया काटे सा फूल गया। गंभीर मुद्रा में बैठे हुए दामाद को देखकर सासू मां का तीर फिर चला "अरे बेटा, तुम क्यों परेशान हो रहे हो? भगवान‌ ने लक्ष्मी दी है। "उनके शब्द पूरे भी नहीं हुए कि दामाद जी खिसियाकर बोले "मां,मुझे पता था कि बेटी ही होगी। मुझे कोई दुख नहीं है। "सुधा समझ रही थी कि मन ही मन बेटे की चाह थी मन में।
ननद की अस्पताल से छुट्टी हो गई। पंडित जी के रहते सारे कायदे कानून मानने पड़ेंगे, सोचकर सुधा ने एक कमरे में उसके और बच्चे के रहने की और बैठक में दामाद जी के सोने की व्यवस्था कर दी। एक महीने तक अलग रहना होगा जच्चा और बच्चा से। उसी रात ननद की छोटी बिटिया रोने लगी जोर से। सासू मां ननद के साथ ही थीं। अचानक से बच्ची का रोना बंद हो गया। सुधा हैरान हो रही थी, तभी देखा ननदोई अपनी गुड़िया को गोद में लेकर झूला झुला रहे थे। बच्चों की मासूमियत के आगे सारे नियम-कानून धरे के धरे रह जातें हैं। सुधा ने यह नज़ारा दिखाने के लिए सास को उठाया और बैठक में ले गई, जहां ननदोई अपनी बिटिया को गोद लिए हुए खड़े थे। सामने सरहज और सास को देखकर वो सकपका गए और झेंपते हुए बोले "नहाना पड़ेगा, पर बहुत रो रही थी ना, इसलिए उठा लिया। "सुधा ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा "कोई बात नहीं दामाद जी, बच्चे तो भगवान का रस होतें हैं। उन्हें संक्रमण से बचाने के लिए ही नियम-कानून बनाए होंगें घर के बुजुर्गो ने। आप तो पिता हैं। अभी नहीं नहाएंगे, तब भी कोई बात नहीं। "दामाद जी पानी-पानी हो चले थे, तभी उनकी कट्टर प्रतिद्वंद्वी सासू मां ने अपनी विशिष्ट टिप्पणी की "और नहीं तो क्या? छोटे बच्चे को रोता छोड़ दें क्या? ये तो कुछ भी नहीं, मैं तो रात को अपने पोते को अपने पास ही सुलाती थी। बस जब तुम आए थे, बहू के पास दे दिया था।"
सुधा ने अपनी ननद की ओर देखा तो वह अपने पति की ओर देखने लगी। दोनों सास और दामाद आज पानी-पानी हो रहे थे। सुधा को हंसी भी आ गई। "शेर को सवा शेर मिला है आज"। धीरे से बड़बड़ाई तो, ननद ने भी चुटकी ली "पर शेर कौन और सवा शेर कौन?"

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