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बुद्धिमान साधु

डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव


किसी राजमहल के द्वार पर एक साधु आया और द्वारपाल से बोला कि तुम भीतर जाकर राजा से कहो कि बाहर उनका भाई आया है। द्वारपाल ने समझा कि शायद ये कोई दूर के रिश्ते में राजा का भाई होगा जो संन्यास लेकर साधुओं की तरह रह रहा होगा।
सूचना मिलने पर राजा मुस्कुराया और साधु को राजमहल में बुलाकर अपने पास बैठा लिया।
साधु ने पूछा, “कहो अनुज, क्या हाल-चाल हैं तुम्हारे?”
“मैं ठीक हूँ आप कैसे हैं भैया?”, राजा बोला।
साधु ने कहा, “जिस महल में मैं रहता था, वह पुराना और जर्जर हो गया है। कभी भी टूटकर गिर सकता है। मेरे 32 नौकर थे वे भी एक-एक करके चले गए। पाँचों रानियाँ भी वृद्ध हो गयीं और अब उनसे भी काम नहीं होता।”
यह सुनकर राजा ने साधु को 10 सोने के सिक्के देने का आदेश दिया। साधु ने 10 सोने के सिक्के कम बताए। तब राजा ने कहा, “इस बार राज्य में सूखा पड़ा है, आप इतने से ही संतोष कर लें।”
साधु बोला, “मेरे साथ सात समुन्दर पार चलो वहां सोने की खदानें हैं। मेरे पैर पड़ते ही समुद्र सूख जाएगा। मेरे पैरों की शक्ति तो आप देख ही चुके हैं।”
अब राजा ने साधु को 100 सोने के सिक्के देने का आदेश दिया।
साधु के जाने के बाद मंत्रियों ने आश्चर्य से पूछा, “क्षमा करियेगा राजन, लेकिन जहाँ तक हम जानते हैं आपका कोई बड़ा भाई नहीं है, फिर आपने इस ठग को इतना इनाम क्यों दिया?”
राजन ने समझाया, “देखो, भाग्य के दो पहलु होते हैं। राजा और रंक। इस नाते उसने मुझे भाई कहा। जर्जर महल से उसका आशय उसके बूढ़े शरीर से था। 32 नौकर उसके दांत थे और 5 वृद्ध रानियाँ, उसकी 5 इन्द्रियां हैं।
समुद्र के बहाने उसने मुझे उलाहना दिया कि राजमहल में उसके पैर रखते ही मेरा राजकोष सूख गया। मैं उसे मात्र दस सिक्के दे रहा था जबकि मेरी हैसियत उसे सोने से तौल देने की है। इसीलिए उसकी बुद्धिमानी से प्रसन्न होकर मैंने उसे सौ सिक्के दिए और कल से मैं उसे अपना सलाहकार नियुक्त करूँगा।
सार - किसी व्यक्ति के बाहरी रंग रूप से न तो उसकी बुद्धिमत्ता का अंदाजा लगाना चाहिये और न ही उसके बारे में गलत विचार बनाने चाहिये।

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