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बेटी की चाह

निर्मला सिंह

40-42 साल की घरेलू स्त्री थी सुधा। भरापूरा परिवार था। धन-धान्य की कोई कमी नहीं थी। सुधा भी ख़ुश ही थी अपने घर-संसार में, लेकिन कभी-कभी अचानक बेचैन हो उठती। इसका कारण वह ख़ुद भी नहीं जानती थी।
पति उससे हमेशा पूछते कि उसे क्या परेशानी है? पर वह इस बात का कोई उत्तर न दे पाती।
तीनों ही बच्चे बड़े हो गए थे। सबसे बड़ा बेटा इंजीनियरिंग के तीसरे वर्ष में, मंझला पहले वर्ष में और छोटा दसवीं में था। तीनों ही किशोरावस्था में थे। अब उनके रुचि के विषय अपने पिता के विचारों से ज़्यादा मेल खाते। वे ज़्यादातर समय अपने पिता, टीवी और दोस्तों के साथ बिताते। सुधा चाहती थी कि उसके तीनों बेटे उसके साथ कुछ समय बिताएं, पर उनकी रुचियां कुछ अलग थीं। अब वे तीनों ही बच्चे नहीं रह गए थे, धीरे-धीरे वे पुरुष बनते जा रहे थे।
एक सुबह सुधा ने अपने पति से कहा, “मेरी ख़ुशी के लिए आप कुछ करेंगे?”
पति ने कहा, “हां-हां क्यों नहीं? तुम कहो तो सही।”
सुधा सहमते हुए बोली, “मैं एक बेटी गोद लेना चाहती हूं।”
पति को आश्चर्य हुआ, पर सुधा ने कहा, “सवाल-जवाब मत करिएगा, प्लीज़।” तीनों बच्चों के सामने भी यह प्रस्ताव रखा गया, किसी ने कोई आपत्ति तो नहीं की, पर सबके मन में सवाल था “क्यों?”
जल्द ही सुधा ने डेढ़ महीने की एक प्यारी-सी बच्ची अनाथाश्रम से गोद ले ली। तीन बार मातृत्व का स्वाद चखने के बाद भी आज उसमें वात्सल्य की कोई कमी नहीं थी।
बच्ची के आने की ख़ुशी में सुधा और उसके पति ने एक समारोह का आयोजन किया। सब मेहमानों को संबोधित करते हुए सुधा बोली, “मैं आज अपने परिवार और पूरे समाज के ‘क्यों’ का जवाब देना चाहती हूं। मेरे ख़याल से हर घर में एक बेटी का होना बहुत ज़रूरी है। बेटी के प्रेम और अपनेपन की आर्द्रता ही घर के सभी लोगों को एक-दूसरे से बांधे रखती है।
तीन बेटे होने के बावजूद मैं संतुष्ट नहीं थी। मैं स्वयं की परछाईं इनमें से किसी में नहीं ढूंढ़ पाती। बेटी शक्ति है, सृजन का स्रोत है। मुझे दुख ही नहीं, पीड़ा भी होती है, जब मैं देखती हूं कि किसी स्त्री ने अपने भ्रूण की हत्या बेटी होने के कारण कर दी। मैं समझती हूं कि मेरे पति का वंश ज़रूर मेरे ये तीनों बेटे बढ़ाएंगे, पर मेरे ‘मातृत्व’ का वंश तो एक बेटी ही बढ़ा सकती है।

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