मंदिर से लौटते वक्त केतकी को उसकी सहेली सुलोचना रास्ते में मिल गई थी। दोनों बहुत दिनों के बाद मिली थीं। दोनों मे़ं बातें होने लगी। हालचाल पूछने के बाद केतकी ने सुलोचना से पूछा- "और, बता, तेरी दोनों बेटियाँ कैसी हैं? स्कूल जा रहीं हैं या नहीं?"
सुलोचना ह़ँसते हुए ही बोली- "हाँ जा रहीं हैं। एक छठी में पढ़ रही है। दूसरी आठवीं में पढ़ रही है।"
तभी केतकी की नजर सुलोचना की बाँहों पर चली गई। जहाँ नीले-स्याह धब्बे उभर आये थें। केतकी से रहा ना गया तो उसकी बाँहों की तरफ इशारा करते हुए कौतूहल वश पूछा लिया- "सुलोचना, ये तेरी बाहों पर नीले धब्बे कैसे पड़ गयें हैं? देखो तो, गोरी, बाँहें कैसी काली पड़ गयी हैं।"
केतकी के अपनत्व और मिठास भरे व्यवहार को सुनकर सुलोचना की आँखें भर आईं। माँ, जिंदा थीं तो हाल-चाल लेतीं थीं। पिता को छोड़कर अब तो कोई हाल-चाल लेना वाला भी नहीं रहा।
बाहों पर के स्याह नीले धब्बे बादल बनकर केतकी की आँखों से बरसने लगे - "अरे, छोड़ो भी अब तो ये रोज-रोज की बात हो गई है। कर्मा रोज दारु पीकर आता है। और, मुझे रोज मारता-पीटता है। बच्चे छोटे-छोटे हैं, अभी, नहीं तो बच्चों को लेकर मायके अपने पिता के पास चली जाती। क्या करूँ बहुत मजबूर हू़ँ।"
दु:ख की एक महीन रेखा सलवटों से भरे सुलोचना के चेहरे पर उभर आयी थीं। जहाँ सुख कभी उगा ही नहीं था।
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