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ब्राह्मण का सपना

रविन्द्र सिंह

एक वक्त की बात है, किसी शहर में एक कंजूस ब्राह्मण रहता था। एक दिन उसे भिक्षा में जो सत्तू मिला, उसमें से थोड़ा खाकर बाकी का उसने एक मटके में भरकर रख दिया। फिर उसने उस मटके को खूंटी से टांग दिया और पास में ही खाट डालकर सो गया। सोते-सोते वो सपनों की अनोखी दुनिया में खो गया और विचित्र कल्पनाएं करने लगा।
वो सोचने लगा कि जब शहर में अकाल पड़ेगा, तो सत्तू का दाम 100 रुपये हो जाएगा। मैं सत्तू बेचकर बकरियां खरीद लूंगा। बाद में इन बकरियों को बेचकर गाय खरीदूंगा। इसके बाद भैंस और घोड़े भी खरीद लूंगा।
कंजूस ब्राह्मण कल्पनाओं की विचित्र दुनिया में पूरी तरह खो चुका था। उसने सोचा कि घोड़ों को अच्छी कीमत पर बेचकर खूब सारा सोना खरीद लूंगा। फिर सोने को अच्छे दाम पर बेचकर बड़ा-सा घर बनाऊंगा। मेरी संपत्ति को देखकर कोई भी अपनी बेटी की शादी मुझसे करा देगा। शादी के बाद मेरा जो बच्चा होगा, मैं उसका नाम मंगल रखूंगा।
फिर जब मेरा बच्चा अपने पैरों पर चलने लगेगा, तो मैं दूर से ही उसे खेलते हुए देखकर आनंद लूंगा। जब बच्चा मुझे परेशान करने लगेगा, तो मैं गुस्से में पत्नी को बोलूंगा और कहूंगा कि तुम बच्चे को ठीक से संभाल भी नहीं सकती हो। अगर वह घर के काम में व्यस्त होगी और मेरी बात का पालन नहीं करेगी, तब मैं गुस्से में उठकर उसके पास जाऊंगा और उसे पैर से ठोकर मारूंगा। ये सारी बातें सोचते-सोचते ब्राह्मण का पैर ऊपर उठता है और सत्तू से भरे मटके में ठोकर मार देता है, जिससे उसका मटका टूट जाता है।
इस तरह सत्तू से भरे मटके के साथ ही कंजूस ब्राह्मण का सपना भी चकनाचूर हो जाता है।
सीख : इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि किसी भी काम को करते वक्त मन में लोभ नहीं आना चाहिए। लोभ का फल कभी भी मीठा नहीं होता है। साथ ही सिर्फ सपने देखने से सफलता नहीं मिलती, इसके लिए मेहनत करना भी जरूरी है।

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