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भला कौन?

सुभाष चौधरी

एक बार एक धनी पुरुष ने एक मंदिर बनवाया। मंदिर में भगवान की पूजा करने के लिए एक पुजारी रखा। मंदिर के खर्च के लिए बहुत सी भूमि, खेत और बगीचे मंदिर के नाम से लगाए।
उन्होंने ऐसा प्रबंध किया था कि मंदिर में जो भूखे, दीन दुखी या साधु-संत आवें, वे वहां दो-चार दिन ठहर सकें और उनको भोजन के लिए भगवान का प्रसाद मंदिर से मिल जाया करे। अब उन्हें एक ऐसे मनुष्य की आवश्यकता हुई जो मंदिर की संपत्ति का प्रबंध करें और मंदिर के सब कामों को ठीक-ठीक चलाता रहे।
बहुत से लोग उस धनी पुरुष के पास आए। वे लोग जानते थे कि यदि मंदिर की व्यवस्था का काम मिल जाए तो वेतन अच्छा मिलेगा। लेकिन उस धनी पुरुष ने सबको लौटा दिया। वह सब से कहता था – "मुझे एक भला आदमी चाहिए, मैं उसको अपने आप छांट लूंगा।"
बहुत से लोग मन ही मन में उस धनी पुरुष को गालियां देते थे। बहुत लोग उसे मूर्ख या पागल बतलाते थे। लेकिन वह धनी पुरुष किसी की बात पर ध्यान नहीं देता था। जब मंदिर के पट खुलते थे और लोग भगवान के दर्शन के लिए आने लगते थे तब वह धनी पुरुष अपने मकान की छत पर बैठकर मंदिर में आने वाले लोगों को चुपचाप देखता रहता था।
एक दिन एक मनुष्य मंदिर में दर्शन करने आया। उसके कपड़े मैले और फटे हुए थे वह बहुत पढ़ा लिखा भी नहीं जान पड़ता था। जब वह भगवान का दर्शन करके जाने लगा तब धनी पुरूष ने उसे अपने पास बुलाया और कहा – ‘क्या आप इस मंदिर की व्यवस्था संभालने का काम करें ?’
वह मनुष्य बड़े आश्चर्य में पड़ गया। उसने कहा – ‘मैं तो बहुत पढ़ा लिखा भी नहीं हूं, मैं इतने बड़े मंदिर का प्रबंध कैसे कर सकूंगा?’
धनी पुरुष ने कहा – ‘मुझे बहुत विद्वान नहीं चाहिए, मैं तो एक भले आदमी को मंदिर का प्रबंधक बनाना चाहता हूं।’
उस मनुष्य ने कहा – ‘आपने इतने व्यक्तियों में मुझे ही क्यों भला आदमी माना।’
धनी पुरुष बोला – ‘मैं जानता हूं कि आप भले आदमी हैं। मंदिर के रास्ते में एक ईंट का टुकड़ा गड़ा रह गया था और उसका एक कोना ऊपर निकला हुआ था, मैं उधर बहुत दिनों से देख रहा था कि उस मंदिर की ईंट के टुकड़े की नोक से लोगों को ठोकर लगती थी, लोग गिरते थे लुढ़कते थे और उठ कर चल देते थे। आपको उस टुकड़े से ठोकर नहीं लगी किंतु फिर भी आपने उसे देखते ही उखाड़ देने का यतन किया। मैं देख रहा था कि आप मेरे मजदूर से फावड़ा मांगकर ले गए और उस टुकड़े को खोद कर आपने वहां की भूमि भी बराबर कर दी।’
उस व्यक्ति ने कहा – “यह तो कोई बात नहीं है, रास्ते में पड़े कांटे, कंकड़ और पत्थर, ईटों को हटा देना तो प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है।’
धनी पुरुष ने कहा – ‘अपने कर्तव्यों को जानने और पालन करने वाले लोग ही भले आदमी होते हैं।’
वह व्यक्ति मंदिर का प्रबंधक बन गया उसने मंदिर का बड़ा सुंदर प्रबंध किया।

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