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भाई-भाई

रमाकांत शुक्ल

यूं तो वह दोनों बहनें हैं और खुशकिस्मती से दोनों सगे भाइयों से ब्याही गई थी। मगर शादी के बाद घर में दोनों देवरानी-जेठानी के रुतबे की वजह से दोनों का अहम बीच में आने लगा था। दोनों एक-दूसरे को नीचा दिखाने से कभी नहीं चूकती थी। आए दिन की नौकझौक छोटी-छोटी से बडी लड़ाइयों में तब्दील होते हुए समय नहीं लेती। दोनों की वजह से कलह तक इतनी बढ़ गयी कि बड़े भाई को ना चाहते हुए भी छोटे के लिए अलग मकान खरीदना पड़ा।
बड़े भाई को डर सता रहा था कि कहीं रोज-रोज की कलह से कोई बड़ा हादसा ना हो जाए। उसपर माता-पिता की मृत्यु के बाद घर का बड़ा था वो और उसका छोटे भाई। उसके लिए बेटे जैसा वहीं उसकी पत्नी, उस की बेटी समान बहु। मगर यदि वह उन दोनों का पक्ष लेता तो पत्नी नाराज हो जाती। वहीं पत्नी का पक्ष लेने पर छोटा भाई और उसकी पत्नी उन्हें ही बड़े होकर पक्षपात करने का आरोपी बना देते। आखिरकार समस्या के निवारण के लिए उसने छोटे भाई को एक मकान खरीदकर दे दिया। मगर पत्नी को यही कहा कि छोटे ने अपनी कमाई और कुछ लोन उठाकर मकान लिया है। मुझे तो बड़ा होने की वजह से सही ग़लत के चलते बस वहां खड़ा कर दिया था।
उसकी पत्नी ने उससे पूछा, “अच्छा, वैसे कहाँ लिया मकान उन दोनों ने?
बहूत दूर है उनका मकान, इतना कहते हुए उसकी आवाज भर्रा गई और आगे वह कुछ नहीं कह पाया।
अगले कुछ दिनों में नाजाने कैसे घूमते फिरते उसकी पत्नी ने पता लगवा लिया छोटे देवर देवरानी के मकान का। उसी शाम पति के घर आते ही वह उस पर बरसते हुई बोली, “तुम तो कहते थे, बहुत दूर लिया है मकान और ये दो गली छोड़कर ही खरीद लिया मकान, अपने ही ब्लाक में। तुम मना नहीं कर सकते थे। जब बड़ा बनना था तो दूर किसी और दूसरी कालोनी में मकान नहीं दिलवा सकते थे। यही हमारी छाती पर मूंग दलवानी थी। वह लगातार जाने क्या अनाप-शनाप बके जा रही थी।
वहीं बड़ा भाई चुप था क्योंकि उसे तो अपने ही ब्लाक की दो गली की दूरी मीलों जैसे दूर लग रही थी। अब उसे सुबह उठने पर या शाम को फैक्ट्री से लौटकर आने पर अपने बेटे जैसे छोटे भाई का मासूम चेहरा देखने को भी नहीं मिलेगा।
उसके दिल से कोई पूछे ये दूरी.....कितनी दूर है...!!

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