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भाजी वाली

डॉ. कृष्णा कांत श्रीवास्तव

एक भाजी वाली। रोज हमारे घर आती। बड़ी सी लाल बिंदी, करीने से बनाए बाल, और हाथ भर के चूडिय़ां। मम्मी के मुँह लगी थी बड़ी। रोज की तरह दोपहर में दरवाजे पर आयी। "काकी, सब्जियां लाई। क्या दूँ?"
रोज की तरह मम्मी ने उसे अंदर से पूछा, "क्या लाई आज?"
“मेंथी है, लौकी है, गंवार फल्ली है.., " मम्मी ने कहा, "रुक आयी"
दरवाजे में आ कर मम्मी ने उसकी टोकरी को हाथ दिया और नीचे उतारा, "बोलो काकी, क्या दूँ आज?"
"मेंथी कैसी?"
"दस रुपये पाव, ताज़ी है काकी"
"बस तू रोज ऐसे ही हमको बेवकूफ़ बनाती जा" मम्मी ने घुडकी भरी, "दस में एक किलो देती तो दे"
"नई जमेंगा काकी"
"जाने दे फिर"
भाजी वाली ने टोकरी उठाई और जाने लगी।
"काकी, बीस में एक किलो ले लो।"
"नहीं, दस में एक किलो। देती है तो लुंगी" मम्मी ने उसे एक कड़क लुक दे दिया।
भाजी वाली बाई निकल गई। मैंने मम्मी को समझाया, "दे देती उसको दस रुपये, क्या बिगड़ जाता तेरा?" "तू चुप कर, ऐसे चलाएगा गृहस्थी?"
पांच मिनट बाद आवाज आयी…., "काकी"
भाजी वाली बाई फिर से आ गई थी। मम्मी दरवाजे के पास ही रुकी थी। मम्मी को पता था वो वापिस आयेंगी। अब भाजी वाली बाई दस रुपये में एक किलो देने को तैयार हो गई थी। मम्मी ने उसकी टोकरी नीचे उतारने में मदद की। मम्मी ने ठीक से देख के एक किलो मेंथी ले ली। दस रुपये दिए। भाजी वाली बाई के टोकरी उठाते ही उसको चक्कर सा आ गया। मम्मी ने उसको सम्भाला, "कुछ खाया क्या नहीं?
"नहीं काकी, सुबह जल्दी जाना प़डा मंडी में, बस अब घर जाऊँगी और खाना पका के खा लुंगी।"
"ठहर, बैठ यहां पांच मिनट।" मम्मी अंदर गई। आते वक़्त मम्मी के हाथ में एक लोटा और थाली थी। दो रोटी, सब्ज़ी, और मिर्च का ठेसा।
भाजी वाली बाई ने खाना खतम किया। पानी पिया और वहां से चली गई।
मुझ से रहा नहीं गया, "मम्मी, दो रुपए बढ़ा के नहीं दिए और बाई को दो रोटी खिला दी, जितने बचाए उससे ज्यादा का खिला दिया। कमाल करती हो।"
मम्मी हंसी और जो कहा वो दिल में घर कर गया।
"व्यापार करते हुए दया नहीं और दया करते हुए व्यापार नहीं।"

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