डॉ. कृष्णा कांत श्रीवास्तव
एक पुरानी सोसाइटी है। पूरे सैक्टर में हर गली में लोहे के गेट लगे हैं। जिनपर गार्ड रहते हैं, कुछ गार्ड तो हमारे टाईम से अब तक हैं।
सोसाइटी में पहुंच कर गार्ड से बात कर रहा था कि और क्या हाल है आप लोगों का, तभी मोटरसाइकिल पर एक आदमी आया और उसने झुक कर प्रणाम किया।
मैंने पहचानने की कोशिश की। बहुत पहचाना-पहचाना लग रहा था, पर नाम याद नहीं आ रहा था।
उसी ने कहा, पहचाने नहीं? हम बाबू हैं, बाबू।
उधर वाली आंटी के जी के घर काम करते थे।
मैंने पहचान लिया। अरे ये तो बाबू है। पिछली गली में 1287 नं० वाली आंटी जी का नौकर।
एक ही बेटा था आंटी का, अंकल पहले ही गुजर चुके थे, बेटा स्नातक के बाद ही ऑस्ट्रेलिया चला गया था, वहीं पढ़ाई की, अब व्यवसाय, विवाह, घर सब ऑस्ट्रेलिया ही है।
“अरे बाबू, तुम तो बहुत तंदुरुस्त हो गए हो। आंटी कैसी हैं?”