दर्द अपना सागर ने ऐसे छलकाया,
सीने के तूफान को सतह पर उठाया।
चोट खाता है जो मोहब्बत में गहरी,
वो ही तो काबिल शायर हो पाया।
नींद रात भर करवटें बदलती रही,
और इल्जाम सूनी यादों पर लगाया।
पीले पड़े पत्तों को तो झड़ना ही था,
महीनों के कटघरे में पतझड़ आया।
पेड़ टुकुर टुकुर तकता रहा घरौंदा,
उड़ा जो पंछी फिर लौट नहीं पाया।
रिश्ते नाते तो बस सांसों से निभते,
मरे बदन को तो अपनों ने जलाया।
आसमान की बोली लगा रही ज़मीन,
हवाई पंखों ने क्या खूब उसे उड़ाया।
मौसम की राहों से आंखों में उतरे,
बूंदों को*मन मेरा* कुछ ऐसा भाया।
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