मुकेश ‘नादान’
नरेंद्र की प्रवेशिका परीक्षा के कुछ दिनों बाद से ही सम्मिलित परिवार में विवाद बढ़ जाने एवं चाचा के परिवार के उत्पीड़न से विश्वनाथ सपरिवार एक किराए के मकान में रह रहा था। नरेंद्रनाथ मुख्य रूप से उसके बाहरी हिस्से के दो-मंजिले के एक कमरे में रहकर अध्ययन आदि करते थे। वहाँ असुविधा होने के कारण वे अपनी नानी के मकान के एक कमरे में रहकर अपने उद्देश्य-साधना में लगे रहते। उनके पिता एवं आत्मीय जन सोचते, अनेक भाई-बहिनों के शोरगुल से भरे अपने घर में अध्ययन में असुविधा होने के कारण ही नरेंद्र वहाँ करता है।
इन्हीं दिनों उन्होंने ब्रह्मसमाज में भी आना-जाना शुरू कर दिया। उन दिनों वे निराकार-सगुण ब्रह्म में विश्वास करते थे। इस प्रकार के ध्यान में अधिक समय बिताया करते थे। वे सोचते, ईश्वर जब सचमुच है, तब मात्र तर्कयुक्ति की अनिश्चित आधारभूमि में बँधे न रहकर साधक के हृदय में प्रत्यक्ष अनुभूति के दुवारा प्रकट होंगे, मनुष्य के हदय की आकुल पुकार का उत्तर देकर उसके सारे संदेहों को दूर करेंगे। इस प्रकार की ईश्वरानुभूति के बिना जीवन मात्र एक विडंबना है।
महर्षि देवेंद्रनाथ की निकटता के कारण उनकी ध्यान-प्रवणता और अधिक बढ़ गई थी। विद्यालय में पढ़ने के समय ही महर्षि से उनका परिचय हुआ था। इसी साधारण परिचय के आधार पर नरेंद्रनाथ एक दिन अपने समवयस्क साथियों के साथ महर्षि के समक्ष उपस्थित हुए। उन्होंने युवकों को स्नेहपूर्वक अपने निकट बैठाकर अनेक उपदेश दिए तथा ध्यानाभ्यास करने को कहा।
उन्होंने उस दिन नरेंद्र को लक्ष्य कर कहा था, “तुम में योगी के सारे लक्षण दिखाई देते हैं। ध्यानाभ्यास करने पर योगशात्र में उल्लिखित सारे फल तुम शीघ ही प्राप्त करोगे।"
यहाँ ब्रह्मसमाज के साथ नरेंद्र के संपर्क के विषय में कुछ कहना आवश्यक हो जाता है। इस विषय में 'युगांतर' पत्रिका (बँगला) में प्रकाशित (11 अगस्त, 1963) श्रीयुत नलिनीकुमार भद्र के “स्वामी विवेकानंद और खखविंद्र संगीत' शीर्षक निबंध से कतिपय तथ्य नीचे उद्धृत किए हैं, “नरेंद्रनाथ जब प्रवेशिका वर्ग के छात्र थे, तब से ही बेनी उस्ताद के निकट उनकी शात्रीय संगीत शिक्षा शुरू हुई। सन् 1879 से ही उन्होंने ब्रह्मसमाज में आना-जाना शुरू किया था। उधर जोड़ासांको के ठाकुर-गृह में उन दिनों पूरे जोर-शोर से उच्चांग संगीत का अभ्यास चल रहा था। इस परिवार के साथ भारत के सर्वश्रेष्ठ संगीत-मर्मज्ञ श्री यदु भट्ट का संपर्क स्थापित हो गया था। महर्षि के पुत्रगण, विशेषकर ज्योतिरिंद्रनाथ और रवींद्रनाथ धुपद गीतों की रचना के दुवारा ब्रह्मसमाज के संगीत भंडार को भर रहे थे।
“1887 ई. के 75 श्रावण को जब साधारण त्रह्मसमाज के मंदिर में पूर्ण आडंबर और शोभापूर्वक राजनारायण बसु की चतुर्थ कन्या लीलादेवी के साथ 'संजीवनी' पत्रिका के भावी प्रतिष्ठाता कृष्ण कुमार मित्र का विवाह हुआ, तब रवींद्रनाथ ने तीन धुपदांग संगीत की रचना कर नरेंद्रनाथ आदि को सिखा दिया। यथासमय डॉ. सुंदरीमोहन दास, केदारनाथ मित्र, अंध चुन्नीलाल तथा नरेंद्रनाथ ने रवींद्ररचित “दुई हृदयेर नदी' (सहाना, झंपताल), “जगतेर पुरोहित तुमि' (खंबाज एकताल) “शुभदिन एमेछो दोहे' (बिहाग, तिताल)-इन तीनों गीतों और अन्य गीतों को गाया था। यह भी स्मरण रखने योग्य है कि कुछ वर्षों बाद जब नरेंद्रनाथ ने भूमिका सहित एक संगीत-संग्रह ग्रंथ तैयार किया तथा बड़तला के चंडीचरण बसाक ने इसे प्रकाशित किया, तब उस गंथ में 'दुई हृदयेर नदी' के साथ ही रबींद्ररचित दस गीतों तथा और भी अनेक ब्राह्मण-संगीतों ने स्थान पाया था।"
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