मुकेश ‘नादान’
कहते हैं कि जब बुरा समय आता है तो चारों ओर से घेर लेता है। दुर्दिनों में संयमी से संयमी व्यक्ति भी अपना संयम खो देता है, लेकिन नरेंद्र ऐसा कदापि नहीं चाहता था।
नरेंद्र अपने घर-परिवार की चिंता में, नौकरी की तलाश में भटक रहा था। आखिर उसे एक अटार्नी के ऑफिस में कुछ काम करके और कुछ पुस्तकों का अनुवाद करके थोड़े-बहुत पैसे मिलने लगे, किंतु यह आय पर्याप्त नहीं थी।
कुछ दिनों बाद मैट्रोपोलिटन स्कूल की एक शाखा घोपातला मुहल्ले में खुली। ईश्वरचंद्र विद्यासागर की सिफारिश पर नरेंद्र वहाँ प्रधानाध्यापक नियुक्त हो गए। इस तरह परिवार की समस्या काफी हद तक कम हो गई। मगर एक और बड़ी विपत्ति सामने आ गई। नरेंद्र के कुटुंबियों ने छल-बल से उनके पैतृक मकान पर कब्जा कर लिया। इस कारण नरेंद्र को अपनी माँ व भाइयों के साथ नानी के मकान में शरण लेनी पड़ी। नरेंद्र ने संबंधियों के विरूद्ध हाईकोर्ट में मुकदमा दायर कर दिया।
अनेक विपत्तियाँ एक साथ सामने आने से नरेंद्र बहुत चिंतित था। जब वह सोच-सोचकर थक गया, तो दक्षिणेश्वर जा पहुँचा। उसने रामकृष्ण से हठपूर्वक कहा, “आपको मेरी माँ व भाइयों का कष्ट दूर करने के लिए माँ जगदंबा से प्रार्थना करनी होगी।”
रामकृष्ण ने स्स्नेह उत्तर देते हुए कहा, “ओरे, मैंने माँ से कई बार कहा है कि माँ, नरेंद्र के दुख-दर्द दूर कर दो। माँ कहती हैं, मैं उसके लिए कुछ नहीं करूँगी, क्योंकि वह मुझे नहीं मानता। खैर, आज मंगलवार है, मैं कहता हूँ, आज रात को काली के मंदिर में जाकर, माँ को प्रणाम करके, तू जो भी माँगेगा, माँ तुझे वही देंगी। मेरी माँ चिन्मयी शक्ति हैं, उन्होंने अपनी इच्छा से संसार का प्रसव किया है। वे चाहें तो क्या नहीं कर सकतीं? ”
श्रीरामकृष्ण परमहंस के इस विनीत आग्रह पर नरेंद्र काली माँ के मंदिर में रात्रि के समय जा पहुँचे। मगर माँ के समक्ष पहुँचते ही नरेंद्र अपने वहाँ आने का उद्देश्य भूल गए। माँ काली की मूर्ति दिव्य ज्योति सी जगमगा रही थी।
नरेंद्र को लगा, मानो माँ सजीव रूप में उनके समक्ष खड़ी हैं।
जब नरेंद्र को अपने वहाँ आने का कारण याद आया, तो वह लज्जित हो उठा और सोचने लगा, 'कितनी लज्जाजनक बात है। मेरी कितनी बुद्धि खराब हो गई है, जो मैं जगज्जननी से सांसारिक सुख माँगने आया हूँ।' 'लज्जित होकर उसने माँ को प्रणाम करते हुए कहा, “माँ, मैं और कुछ नहीं माँगता, मुझे केवल ज्ञान और भक्ति दो।”
माँ से ऐसा वरदान माँगकर नरेंद्र श्रीरामकृष्ण के पास आए, तब उन्हें अनुभव हुआ कि वह जो माँगने गए थे, वह तो माँगा ही नहीं।
जब यह बात श्रीरामकृष्ण को पता चली तो उन्होंने पुनः नरेंद्र को माँ के समक्ष जाकर माँगने को कहा। नरेंद्र ने ऐसा ही किया, किंतु फिर भी सांसारिक सुख न माँग सके।
इस तरह नरेंद्र कई बार मंदिर में गए, लेकिन हर बार माँ से ज्ञान व भक्ति ही माँगी।
नरेंद्र ने रामकृष्ण से कहा, “ठाकुर, मैं माँ से रूपया-पैसा माँगने जाता हूँ, लेकिन ये सब माँगने में मुझे लज्जा अनुभव होती है।”
रामकृष्ण ने मुस्कराकर कहा, “जिस वस्तु की तुम्हें लालसा ही नहीं है, उसे तुम माँग भी कैसे सकते हो? ”
नरेंद्र के लिए वह दिन नवजीवन लेकर आया। वह माँ काली को नहीं मानता था, किंतु अब मानने लगा। उसने रामकृष्ण से माँ का भजन सीखा और पूरी रात उसी भजन को गाता रहा।
मूर्तिपूजा में विश्वास न रखने वाला नरेंद्र खुद मूर्तिपूजक बन गया।
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