यायावर गोपाल खन्ना
मैं तो कहूंगा माता-पिता के लिए तो हर दिन समर्पित है। जब ये शरीर ही माता पिता का दिया हुआ है तो उनको किसी खास दिन से क्या जोड़ना।
आज मेरी मां को दिवंगत हुए 33 वर्ष का समय गुजर गया है पर शायद ही कोई दिन ऐसा हो जब मां की याद ना आई हो। आज मां नहीं है पर बहुत सी अपनी वो गलतियां याद आती हैं, जो मुझे नहीं करनी चाहिए थीं।
मैं हर साल कहीं न कही पत्नी और बच्चों के साथ घूमने जाता था। मेरे साथ मेरे मित्र श्री अशोक जेटली भी जाते थे।
मां बड़ी खुशी से मेरे जाने की तयारी में अपना सहयोग देतीं, एक बार जब मेरी बेटी करीब पांच साल की थी और बेटा तीन साल का तो मैं अपनी बेटी को मां के पास छोड़ कर भी गया था।
पर कभी मां ने ये नहीं कहा की मुझे भी ले चलो। मन तो उनका भी घूमने का जरूर करता होगा, पर यह सोच कर नहीं कहा होगा की बेटे की आजादी में खलल पड़ेगी। जब मैं लौट कर आता तो मुझसे एक एक बात बड़े चाव से पूछतीं, शायद वह अपने न घूम पाने की कसर पूरी करतीं।
अगर मेरी मां ने एक बार भी मेरे साथ चलने की इच्छा जरा भी व्यक्त की होती तो मैं उनकी बात मना नहीं करता ले जरूर जाता।
वह बहुत सहयोगी स्वभाव की थीं, और मैं उनको प्यार और सम्मान भी देता था। एक बार जब मैं अपने मित्र के साथ कोलकाता जा रहा था तो उन्हों ने मुझसे पूछा "गोपाल क्या मैं अपनी मासी ( मौसी) को साथ ले चलूं?"
मेरे मना करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था। लिहाजा हम दोनों परिवार और मित्र की मासी टूर पर गए। सब लोग उनका ख्याल रखते थे। यात्रा बहुत अच्छी रही। तब मैंने अनुभव किया माता-पिता के साथ यात्रा करने में एक अनोखे आनंद की अनुभूति होती है। उनका सहयोग भी मिलता है। बच्चों की जिम्मेदारी भी आधी रह जाती है।
पर इस यात्रा में मैं कई बार अपने आंसू नहीं रोक पाया, रह रह कर एक बात सोचता, जब मासी आ सकती हैं तो मैं अपनी मां को क्यों कभी नहीं लाया। ये सच है स्वयं कभी उन्होंने साथ चलने को नहीं कहा, पर मेरा भी तो कुछ फर्ज बनता था मैने भी तो कभी उनसे चलने को नहीं कहा।
आज मैं सिर्फ अपनी इस गलती पर रो सकता हूं। अफसोस कर सकता हूं, सुधार नहीं सकता क्योंकि मां तब तक महा यात्रा पर जा चुकी थी।
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