सलमा शफ़ीक़ गौरी
जब 1991 में मेरी शादी कैप्टन शफीक़ गौरी से हुई तो मेरी उम्र 19 साल थी। उनके अक्सर तबादले होते रहते थे और वो मुझसे लंबे समय के लिए दूर भी रहते थे। शुरुआत में मेरे लिए ये बहुत मुश्किल था। लेकिन वो मुझे समझाते कि सैनिक की पत्नी होना कैसा होता है। उस ज़माने में मोबाइल फ़ोन नहीं होते थे। मैं घंटों फ़ोन के पास बैठकर उनके कॉल का इंतेज़ार किया करती थी।
हम दोनों एक दूसरे को पत्र लिखा करते थे। मेरे पति ये सुनिश्चित किया करते कि मुझे हर दिन एक पत्र प्राप्त हो। मैं उनके लिए छोटे-छोटे नोट लिखा करती और उनकी लगेज में छोटे-छोटे सरप्राइज़ छुपा दिया करती।
अगले कुछ सालों में उनकी पोस्टिंग कुछ बेहद ख़तरनाक इलाक़ों में हुई। उस ज़माने में पंजाब और पूर्वोत्तर ख़तरनाक इलाके हुआ करते थे। उनकी पोस्टिंग त्रिपुरा, श्रीनगर और पंजाब में हो चुकी थी। वो कई दिनों तक घर से बाहर रहते थे। लेकिन तब तक मैंने खुद को मज़बूत कर लिया था। मैं अपनी और बच्चों की देखभाल करने लगी थी।
मैं ये जान गई थी कि उनका पहला प्यार उनका देश है और बीवी और बच्चे दूसरे नंबर पर आते हैं।
1999 में वो श्रीनिगर में फ़ील्ड पोस्टिंग पर थे। वो एक ख़तरनाक इलाक़ा था इसलिए परिवार को साथ रहने की अनुमति नहीं थी। मैं बैंगलुरू में रहने लगी थी।
28 जून 2001 को हमने आख़िरी बार बात की थी। उन्होंने हमारी ख़ैरियत पूछी थी और बताया था कि वो एक सैन्य अभियान में जंगल में हैं। वो बच्चों से बात करना चाहते थे लेकिन वो अपने कज़िन के साथ खेल रहे थे और बहुत शोर शराबा भी था। मैंने उनसे कहा था कि वो बेस पर लौटकर कॉल करें और बच्चों से बात करें। मुझे आज भी अपनी उस बात का अफ़सोस होता है।
एक जुलाई 2001 को शाम करीब साढ़े छह बजे कुछ सैन्य अधिकारी और उनकी पत्नियां हमारे घर आए। अचानक एक महिला ने मुझे बिठाया और बताया कि मेजर गौरी अब नहीं रहे हैं।
वो अपनी बात कह चुकी थीं लेकिन मुझे लगा कि मैंने ग़लत सुना है। शायद कोई ग़लती हुई है। उन्होंने बताया कि वो सुबह से हमसे संपर्क करने की कोशिश कर रहे थे लेकिन फ़ोन लाइनों में दिक्कत की वजह से नहीं कर पाए थे।
ऑपरेशन रक्षक के दौरान चरमपंथियों के साथ हुई आमने-सामने की लड़ाई में मेजर गौरी शहीद हो गए थे। और उनके साथ ही मेरी पूरी दुनिया धराशाई हो गई थी। मेरे इर्द गिर्द जो कुछ भी था नष्ट हो गया था।
वो अंतिम दिन था जब मुझे उनसे कोई पत्र प्राप्त हुआ था। अगले दिन मैं एयरपोर्ट गई, उन्हें अंतिम बार रिसीव करने। इस बार वो एक बक्से में आए, तिरंगे में लिपटे हुए। मैं बहुट रोई। उन्होंने हमेशा मुझसे मज़बूत बने रहने के लिए कहा था। जब हमने अंतिम बार बात की थी तब भी उन्होंने यही कहा था। लेकिन मैंने उनके बिना अपने जीवन की कभी कल्पना ही नहीं की थी।
मैंने उनकी वर्दी और कपड़ों को एक बक्से में रख दिया। मैंने आठ सालों तक उन कपड़ों को नहीं धोया क्योंकि मैं उन भावनाओं और अहसासों को साथ रहना चाहती थी। उनके पैसे अभी भी उनके वॉलेट में है। मैं आज भी उनके पत्र पढ़ती हूं। मैंने एक मां और एक पिता की भूमिका निभाने की कोशिश की है लेकिन जब मैं बच्चों को अपने माता-पिता के साथ खेलते हुए देखती हूं तो अपने आंसू रोकने की कोशिश करती हूं।
आज मैं कर्नाटक में शहीदों के परिवारों और शहीदों की विधवाओं की बेहतरी के लिए काम करती हूं।
जब मेजर शफीक़ गौरी शहीद हुए तो मेरी उम्र 29 साल थी। लोगों ने मुझसे ज़िंदगी में आगे बढ़ने के लिए कहा। लेकिन वो मेरे साथ थे, मेरे साथ हैं और हमेशा रहेंगे।
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