top of page

मायका

रमेश कुमार संतोष

करवाचौथ को एक दिन ही बचा है। उस का ध्यान बार-बार भैया और भाभी की तरफ जा रहा है। मन होता है, फ़ोन करूँ। परन्तु करती नहीं है। कहीं यह न समझ लें कि लेने के लिए फोन कर रही है। पर फिर भी उस के भीतर भाई और भाभी के फ़ोन को सुनने के लिए उत्सुकता हो रही है। आखिर एक ही शहर में तो रहते हैं।
जेठानी के मायके वाले भी आ कर अपनी बेटी को करवाचौथ दे गये हैं। सास के मायके वालों ने भी पैसे ट्रांसफर कर दिए हैं, परन्तु उस के मायके से कोई संदेश नहीं। मां होती थी अपनी बेटी को देने के लिए कोई त्योहार खाली जाने नहीं देती थी। करवाचौथ हो या लोहड़ी या दिवाली वह तो निमानी काश्ती को भी कुछ न कुछ भेज देती थी।
पता नहीं क्यों मां बहुत याद आ रही है। कितनी यादें स्मरण हो आई हैं। आज सुबह ही सुबह सासु मां ने भी पैसे दिए थे कि करवाचौथ के लिए वह कुछ खरीद ले, पर पता नहीं उस का मन कुछ भी खरीदने के लिए नहीं हो रहा। बार-बार ध्यान फोन की बैल और गेट की ओर ही जा रहा था। वह कई बार मन को समझा बैठी है कि तुम्हें किसी भी चीज की कमी है, परन्तु न जाने मन क्यों भटक जाता है।
रात आठ बजे के करीब उसे पता चलता है कि उसके भाई और भाभी आये हैं। सुनते ही उसकी आंखें भर आईं। नहीं जानती कि उसकी आंखें क्यों भर आईं बहुत सम्भाल रही थी अपने को, परन्तु भाभी के गले मिल कर मन का सारा गुभार निकल गया।
भाभी ने भी उस के बालों को सहलाते हुए कहा, "पगली" और उस की आंखें भी भीग गई। आज उसे वह अपनी ननद नहीं अपनी बेटी लग रही थी। और उसे वह भाभी नहीं मां लग रही थी। उसे लगने लगा कि उसका मायका है।

******

7 views0 comments

Recent Posts

See All

Comments


bottom of page