जब उस दिन डाक में रमण संदेश नाम की वह छोटी सी पत्रिका मिली तो यह समझते देर न लगी कि निश्चित ही इसे मेरे हिन्दी के अध्यापक रहे रमण सहाय जी ने ही भेजी होगी। वे मेरे गांव के निकट के माध्यमिक स्कूल में मुझे हिन्दी पढ़ाया करते थे। कविताएं लिखते थे। स्कूल के कार्यक्रमों में जब वे अपनी कविताएं सुनाते तो हम बच्चों को वह दुनिया के सबसे बड़े कवि लगते। वे अक्सर कहा करते थे कि रिटायर् होने के बाद एक पत्रिका अवश्य निकालेंगे जिससे इस क्षेत्र के लिखने वालों को देश-दुनिया में नाम दिला सकें। पत्रिका में कुछ कविताएं तो स्वयं रमण जी की थीं और कुछ कस्बे के उभरते कवियों की। साथ ही तीन-चार पन्नों में वैवाहिक विज्ञापन।
मैंने रमण जी को पत्रिका मिलने की सूचना देने के लिए फोन किया तो बहुत खुश हुए। बोले कि पत्रिका निकाल तो दी पर कोई मदद नहीं कर रहा है। उनका संकेत आर्थिक मदद की ओर था। फिर बोले कि तुम्हारी कविता अमुक पत्रिका में छपी देखी तो सोचा संपर्क करें।
तुम तो बड़े लेखक लगते हो। एक कविता मुझे भी भेजो पता तो चले कि लिखते भी हो। और तब गुरु दक्षिणा का भी अधिकार बनता है।
मैंने उन्हें सहयोग राशि का एक चेक और एक कविता लिफ़ाफ़े में रखकर भेज दी। दो-तीन महीने के बाद पत्रिका फिर मिली। मेरी कविता भी छपी थी पर किसी और के नाम से। मैंने फोन करके पूछा तो उनका जवाब बड़ा ही मासूमियत भरा था।
हाँ, मैंने भी देखा है। दरअसल मेरा बारह वर्ष का नाती बहुत दिनों से लगा था कि बाबा एक कविता मेरे नाम से भी छाप दो। स्कूल में दोस्तों को दिखानी है। मुझे समय नहीं मिल पा रहा था और वह ठहरा बालक। अपना धैर्य खो बैठा।
मेरी टेबल पर रखे प्रूफ के पन्नों में तुम्हारी जगह अपना नाम लिख दिया। तुम एक कविता और भेज दो। इस बार तुम्हारे फ़ोटो के साथ छापेंगे। मैं इंतजार करूंगा। मैं फोन हाथ मे लिए निरुत्तर होकर अपनी मुक्ति के मार्ग की खोज में लग गया।
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