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मुफ्त की रोटी

लक्ष्मी कुमावत

शाम हो चुकी थी। सात वर्षीय विवान अपनी दादी (कमला जी) के साथ हर शाम को मंदिर जाया करता था। वहां से वापस लौटते समय विवान आसपास बने बाजार को देखकर खुश हो रहा था। इस कारण से उसका ध्यान सामने सड़क पर नहीं था। इतने में वह पत्थर से टकरा कर गिर गया। गिरने से उसके घुटनों पर हल्की फुल्की चोट आ गई।
यह देखकर दादी का तो कलेजा ही मुंह को आ गया। उनकी आंखों में से आंसू बहने लगे। अपनी दादी को रोता हुआ देखकर विवान बोला, "अरे दादी! आप रोती क्यों है? हल्की-फुल्की चोट ही तो है। अब ये तो छोटी-मोटी बात है क्योंकि गलती तो मेरी ही थी। मैं ही रोड पर नहीं देख रहा था।"
विवान की बात सुनकर दादी अपने आंसू पोछकर हल्के से मुस्कुरा दी, पर अभी भी उनके चेहरे पर घबराहट थी। जैसे-तैसे अपनी घबराहट और विवान के साथ वे घर की तरफ रवाना हुई और आखिर वही हुआ जिसका उन्हें डर था।
घर में घुसते ही बरामदे में बैठी विवान की मम्मी अर्थात कमला जी की बहू ने जब विवान के घुटनों की तरफ देखा तो उसका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया और वह लगभग चिल्लाते हुए ही बोली, "यह क्या मांजी? आपने आज भी विवान का कोई ध्यान नहीं रखा। मेरे बच्चे को चोट लगा कर ले आई। आखिर ध्यान कहाँ रहता है आपका? कितनी बार कह रखा है कि जब भी विवान को लेकर जाए तो उसका ध्यान रखिए। लेकिन नहीं, आप तो अपनी मौज मस्ती में लगी रहती है। लग गई होगी जरूर अपने किसी पड़ोसी या दोस्तों के साथ बातचीत करने में। गलती मेरी है जो मैंने उसे आपके साथ भेज दिया"
अपनी बहू की बातें सुनकर कमला जी की आंखों में आंसू आ गए। वह इससे पहले कि कुछ कहती, उनकी बहू ने दोबारा चिल्लाना शुरू कर दिया, "अब अपने यह झूठे मगरमच्छ के आंसू बहाना बंद कीजिए। सब जानती हूँ मैं आपके नाटक"
"नहीं मम्मी, दादी की तो कोई गलती ही नहीं थी। वह तो मेरी गलती थी कि... "
"चुप कर। ज्यादा अपनी दादी का पक्ष लेने लगा है। और आप, मेरे बच्चे को भड़काना बंद कीजिए। रोटी हमारी कमाई की खाती है और हमारे ही बच्चे को हमारे खिलाफ भड़काती है। मुफ्त की रोटी पचती नहीं है आपको"
ऐसा कहकर वह विवान का हाथ पकड़कर उसे अंदर ले गई और कमला जी वही अपने आंसू बहाते रह गई। बार-बार अपनी बहू के शब्द उनके कानों में गूंज रहे थे। गलती बहू की भी क्या कहें, जब बेटा भी नालायक हो तो।
आखिर बेटा ही तो वह पहला शख्स था जिसने उनकी रोटी की कीमत उनसे पूछना शुरू की थी। यह कहकर कि मेरी पत्नी सुबह से रात तक लगी रहती है और आप हैं कि बस मुफ्त की रोटियां तोड़ती रहती हैं। थोड़ा बहुत काम नहीं करवा सकती क्या? जबकि कमला जी अपने बेटे के बेटे मतलब विवान को सुबह से शाम तक संभालती थी। यहां तक कि घर के कामों में अपनी बहू का बराबर हाथ बँटाती थी।
कमला जी को अपने पुराने दिन याद आने लगे जब वह अपने पति के साथ गांव में रहा करती थी, जबकि बेटे बहू यहाँ शहर में किराए से रहते थे। पाँच महीने पहले कमला जी के पति की मृत्यु हो गई। उसके बाद बार-बार गांव ना आने की समस्या का समाधान यह निकला कि गांव का मकान बेचकर शहर में एक छोटा सा मकान ले लिया।
जब कमला जी ने मकान बेचकर शहर में मकान लिया था, तब गांव के लोगों ने खूब कहा था कि मकान अपने नाम पर लो। पर उन्होंने यह सोचकर मकान बेटे के नाम पर ले लिया कि उन्हें सिर्फ दो रोटी तो खानी है। अब मकान उनके नाम पर हो या बेटे के नाम पर, क्या फर्क पड़ता है?
अब उसी मकान में कमला जी से उनकी रोटी की कीमत पूछी जाती। हर रोज अपने स्वाभिमान के टुकड़े होते देखकर कमला जी का दिल बार-बार रोता, पर उन्हें इसका कोई समाधान नजर नहीं आता। कोई और बेटा या बेटी नहीं, जिसके पास चली जाए। प्रॉपर्टी के नाम पर सिर्फ यह मकान बचा है जो भी बेटे के नाम से लिया था, अब उस पर मालिकाना हक कैसे जताए। बस ले देकर पेंशन ही आती है जो भी बेटे बहु रख लेते हैं।
पर जब इस बार पेंशन आई तो कमला जी ने उसे अपने बेटे बहू को न देकर अपने पास ही रख ली। इस पर भी बेटे बहू ने काफी बखेड़ा खड़ा किया पर इस बार कमला जी टूटने को तैयार नहीं थी।
"मां आखिर तुम इस पेंशन का करोगी क्या? घर का सामान डलवाना है आप चुपचाप से पैसा दे दीजिए"
"नहीं, इस बार नहीं। बहुत सुन लिया मैंने। घर का राशन मेरे पैसों से आता है और मुझे ही ताने सुनाए जाते हैं कि मैं मुफ्त की रोटी तोड़ती हूं। बस बहुत हुआ। अब और नहीं"
"अच्छा तो अब आप हमारे खिलाफ खड़ी होंगी?"
"हां, क्यों नहीं? आखिर मेरा भी स्वाभिमान है। क्या उम्र के साथ स्वाभिमान खत्म हो जाता है?"
"मैं भी देखूं फिर आप इस घर में कैसे रहती है? यह घर मेरा है, मैं जब चाहे आप को घर से निकाल सकता हूं।"
"ऐसा करने की सोचना भी मत। इतनी कमजोर भी नहीं हूं मैं।"
"सुन लिया अपनी मां को। देखा कैसे कैची की तरह जबान चलती है इनकी। मैं कहती हूं निकालो इन्हें अभी इसी वक्त।"
"बस बहू, बहुत हो गया। बहुत बोल लिया तुमने और बहुत सुन लिया मैंने। मुझे पता था कि मेरी पेंशन आने के बाद तुम यह सब तमाशा जरूर करोगे इसलिए मैंने अपना बंदोबस्त पहले ही कर रखा है।"
"अच्छा! जरा हम भी तो देखें क्या बंदोबस्त कर रखा है।"
"अगर तुम दोनों ने मुझे परेशान किया है तो मैं पुलिस की मदद लूंगी।"
"जाइए, आपको जहाँ जाना है। देखे तो पुलिस भी क्या करती है?"
आखिरकार जब उनके बेटे बहू ने उन्हें जरूरत से ज्यादा परेशान करने की कोशिश की तो उन्होंने एनजीओ और पुलिस की सहायता ली। आखिरकार एनजीओ और पुलिस की सहायता से कमला जी को मकान में एक कमरा दे दिया गया, जहां वह अपनी पेंशन से अपना भरण पोषण करती और स्वाभिमान के साथ रहती हैं। साथ ही साथ उनके बेटे बहू को ताकीद कर दिया गया कि अगर वह दोबारा उन्हें परेशान करते हुए पाए गए तो उनके खिलाफ एक्शन लिया जाएगा।

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