संगीता मिश्र
हरेक मुस्कान, हर आँसू जो कह जाये वो क़िस्सा है।
जहां भर की गुनहगारी में मेरा भी तो हिस्सा है।
तेरी उंगली पकड़ कर चल रही साये की तरह मैं
झटक कर चल पड़ा तू, ऐ ख़ुदा, कैसा ये ग़ुस्सा है?
नदी की तिश्नगी उसको लिये जाती है सागर तक
वजूद उसका समन्दर है, कि सागर भी उसी-सा है।
मेरी दादी जो बैठी चाँद पर, बुनतीं सियह रातें
नुमायाँ इस क़दर, वो चाँद की मिट्टी का विरसा है।
'संगीता' की ग़ज़ल है ये मिसाल-ए-ख़ुद-एतिमादी
सुख़न में सख़्त लोहे सी, कहन में जैसे सीसा है।
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